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स्वामी समंतभद्र ।
है जो कुन्दकुन्दको भद्रबाहुका शिष्य मानकर तथा विक्रमसंवतको मृत्यु'संवत् स्वीकार करके ऊपर बतलाया गया है, अथवा भद्रबाहुको वि० सं०.४ आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होनेवाला मान लेने पर नन्दिसंघकी पट्टावलीमें दिये हुए कुन्दकुन्दके समयाधार पर जिसकी कल्पना की गई है । अस्तु । समय-सम्बंधी इस सब कथन अथवा विवेचन परसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि समन्तभद्र के समय - निर्णय- पथ में कितनी रुकावटें पैदा हो रही हैं— क्या क्या दिक्कतें आरही हैं — और कैसी कैसी कठिन अथवा जटिल समस्याएँ उपस्थित हैं, जिन सबको दूर अथवा हलकिये विना समन्तभद्रके यथार्थ समय-सम्बन्धमें कोई जँची तुली एक बात नहीं कही जा सकती । फिर भी इतना तो सुनिश्चित है कि समन्तभद्र विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीसे पीछे अथवा ईसवी सन् ४५० के बाद नहीं हुए; और न वे विक्रमकी पहली शताब्दीसे पहले के ही विद्वान् मालूम होते हैं - पहली से ५ वीं तक पाँच शताब्दियोंके मध्यवर्ती किसी समय में ही वे हुए हैं । स्थूल रूपसे विचार करने पर हमें समन्तभद्र विक्रमकी प्राय: दूसरी या दूसरी और तीसरी शताब्दी के विद्वान् मालूम होते हैं । परन्तु निश्चयपूर्वक यह बात भी अभी नहीं कही जा सकती । इस समयका विशेष विचार अवसरादिक मिलने पर दूसरे संस्करण के समय किया जायगा । इसमें सन्देह नहीं कि कितने ही प्राचीन आचायौँका समय इसी तरहकी अनिश्चितावस्था तथा गड़बड़ में पड़ा हुआ है और उद्धार किये जानेके योग्य है । समन्तभद्रका समय सुनिश्चित होनेपर उन सभी के समयों का बहुत कुछ उद्धार हो जायगा । साथ ही, वीरनिर्वाण, विक्रम और शक संवतोंकी समस्याएँ भी हल हो जायँगी; ऐसी दृढ आशा की जाती है ।
समय-निर्णय-विषयक इस निबन्धको पढ़कर जो विद्वान् हमें निर्णय में सहायक ऐसी कोई भी खास बात सुझाएँगे उनका हम हृदयसे आभार मानेंगे ।
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