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समय - निर्णय ।
तस्मिन्गते स्वर्गभुवं महर्षो दिवः पतीन्नर्तुमिव प्रकृष्टान् । तदन्वयोद्भूतमुनीश्वराणां बभूवुरित्थं भुवि संघभेदाः || स योग संघचतुरः प्रभेदानासाद्य भूयानविरुद्धवृत्तान् । बभावयं श्रीभगवान्जिनेन्द्र चतुर्मुखानीव मिथः समानि ॥ देव-नन्दि - सिंह-सेन - संघभेदवर्तिनां देशभेदतः प्रबोधभाजि देवयोगिनां । वृत्तितस्समस्ततोऽविरुद्धधर्मसे विनां मध्यतः प्रसिद्ध एष नन्दि-संघ इत्यभूत् ॥ — शिलालेख नं० १०८ ( २५८ ) ।
इन वाक्यों द्वारा यह सूचित किया गया है कि अकलंकदेव ( राजवार्तिकादि ग्रंथों के कर्ता ) की दिवः प्राप्ति के बाद, उनके वंशके मुनियोंमें, यह चार प्रकारका संघभेद उत्पन्न हुआ जिसका कारण देश-भेद है और जो परस्पर अविरुद्ध रूप से धर्मका सेवन करनेवाला है । अकलंक से पहले के साहित्यमें इन चार प्रकारके संघों का कोई उल्लेख भी अभीतक देखने में नहीं आया जिससे इस कथन के सत्य होने की बहुत कुछ संभावना पाई जाती है ।
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( ४ ) ' षट्खण्डागम' के प्रथम तीन खंडोंपर कुन्दकुन्दने १२ हजार श्लोकपरिमाण एक टीका लिखी, यह उल्लेख भी मिथ्या ठहरता है ।
(५) उपलब्ध जैनसाहित्य में कुन्दकुन्दके ग्रंथ ही सबसे अधिक प्राचीन ठहरते हैं और यह उस सर्वसामान्य मान्यता के विरुद्ध पड़ता है जिसके अनुसार कर्म-प्राभृत और कषाय- प्राभृत नामके वे ग्रंथ ही प्राचीनतम माने जाते हैं जिन पर धवलादि टीकाएँ उपलब्ध हैं ।
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