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स्वामी समंतभद्र। किया है * । दर्शनसारकी कई गाथाओंमें, कुछ संघोंके उत्पत्तिसमयका निर्देश करते हुए, 'विकमरायस्स मरणपत्तस्स ' शब्दोंका प्रयोग किया गया है । इसपरसे प्रेमीजीको यह खयाल पैदा हुआ कि इस ग्रंथमें जो कालगणना की है वह क्या खास तौरपर विक्रमकी मृत्युसे की गई है अथवा प्रचलित विक्रम संवत्का ही उसमें उल्लेख है और वह विक्रमकी मृत्युका संवत् है। खोज करनेपर आपको
अमितगति आचार्यका निम्नवाक्य उपलब्ध हुआ और उसपरसे प्रचलित विक्रम संवत्को मृत्यु संवत् माननेके लिये आपको एक आधार मिल गया
समारूढे पूतत्रिदशवसति विक्रमनृपे सहस्रे वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके । समाप्तं पंचम्यामवति धरिणी मुंजनृपतौ
सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ॥ ___यह 'सुभाषितरत्नसंदोह' का पद्य है। इसमें स्पष्ट रूपसे लिखा है कि विक्रम राजाके स्वर्गारोहणके बाद जब १०५० वाँ वर्ष ( सम्बत् ) बीत रहा था और राजा मुंज पृथ्वीका पालन कर रहा था उस समय पौष शुक्ल पंचमीके दिन यह शास्त्र समाप्त किया गया है। अमितग
- * यथा-" बहुतोंका खयाल है कि वर्तमानमें जो विक्रमसंवत् प्रचलित है वह विक्रमके जन्मसे या राज्याभिषेकसे शुरू हुआ है; परन्तु हमारी समझमें यह मृत्युका ही संवत् है । इसके लिये एक प्रमाण लीजिये।"
१ देखो गाथा नं० ११, २८ और ३८ जिनके प्रथम चरण क्रमशः 'छत्ती. से वरिससए ''पंचसए छठवीसे, ''सत्तसए तेवण्णे' हैं और द्वितीय चरण सबका वही 'विक्रमरायस्स मरणपत्तस्स' दिया है । और इन गाथाओंमें क्रमशः श्वेताम्बर, द्राविड तथा काष्ठासंघोंकी उत्पत्तिका समय निर्देश किया है ।
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