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स्वामी समंतभद्र ।
पृथक् समय २० वर्षका मान लिया गया था उसे गणनासे निकाल दिया जा सकता है और तब कुन्दकुन्दका वीरनिर्वाणसे ७४३ वर्ष बाद होना कहा जा सकता है । इससे भी उक्त पद्य के समय समर्थन में कोई बाधा न आती; क्योंकि उस पद्यमें प्रधानतासे उमास्वातिका समय दिया है - उमास्वातिके समकालीन होनेपर भी, वृद्धत्व के कारण, कुन्दकुन्दका अस्तित्व २७ वर्ष पहले और भी माना जा सकता है और उसका मान लिया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है । सेनगणकी पट्टा - चलीमें भी ६८३ वर्षकी गणना " श्रुतावतार ' के सदृश ही की गई है । परंतु 'नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावली में वह गणना कुछ विसदृशरूपसे पाई जाती है । उसमें दशपूर्वधारियों तकका समय तो वही दिया है जिसका ऊपर उल्लेख किया है। उसके बाद एकादशांगधारी पाँच मुनियोंका समय, २२० वर्ष न देकर, १२३ वर्ष दिया है और शेष ९७ वर्षों में सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य नामके उन चार मुनियोंका होना लिखा है और उन्हें दश नव तथा अष्टे अंगका पाठी बतलाया है, जिन्हें 'श्रुतावतार' आदि ग्रंथोंमें एकादशां
सेसेक्करसंगाणिं चोद्दस पुव्वाणमेकदेसधरा ।
एकसयं अट्ठारसवासजुदं ताण परिमाणं ॥ ८१ ॥
तेसु अदीदेसु तदा आचारधरा ण होंति भरहंमि । गोदमणिहुदीर्णं वासाणं छस्सदाणि तेसी दो ॥ ८२ ॥
१ जैनहितैषी, भाग ६ ठा, अंक ७-८ में पं० नाथूरामजीने आठके बाद सात संख्याका भी उल्लेख किया है और लिखा है कि, "जिस ग्रंथके आधार पर हमने यह पट्टावली प्रकाशित की है, उसमें इन्हें क्रमशः दश, नौ, आठ और सात अंगका पाठी बतलाया है" । ऐसा होना जीको भी लगता है, परंतु हमारे सामने जो पट्टावली है उसमें 'दसंग नव अंग अट्ठधरा' और 'दसनवअटुंगधरा' पाठ हैं । संभव है कि पहला पाठ कुछ अशुद्ध छप गया हो और वह 'दसंग णवअट्ठसत्तधरा ' हो ।
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