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स्वामी समन्तभद्र ।
-कर ' यो देवनन्दिप्रथमाभिधानः' इत्यादि पर्यो के द्वारा पूज्यपादका परिचय दिया है, और १०८ वें शिलालेख में समन्तभद्र के बाद पूज्यपादके परिचयका जो प्रथम पद्य दिया है उसीमें ' , ततः शब्दका प्रयोग किया है, और इस तरहपर पूज्यपादको समन्तभद्र के बादका विद्वान् सूचित किया है । इसके सिवाय, स्वयं पूज्यपादने, अपने " जैनेन्द्र ' व्याकरणके निम्न सूत्रमें समन्तभद्रका उल्लेख किया है6 चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ।' ५–४–१४० ।।
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इन सब उल्लेखों से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि समन्तभद्र पूज्यपाद से पहले हुए हैं। पूज्यपादने 'पाणिनीय' व्याकरण पर " शब्दवितार' नामका न्यास लिखा था और आप गंगराजा 'दुर्वि - नी' के शिक्षागुरु ( Preceptor ) थे; ऐसा ' हेब्बूर' के ताम्रलेख, ' एपिनेफिया कर्णाटिका' की कुछ ज़िल्दों, ' कर्णाटककविचरिते ' और 'हिस्टरी ऑफ कनडीज लिटरेचर' से पाया जाता है । साथ ही यह भी मालूम होता है कि ' दुर्विनीत ' राजाका राज्यकाल ई० सन् ४८२ से ५२२ तक रहा है । इसलिये पूज्यपाद ईसवी सन् ४८२
१ पूज्यपाद के परिचय के तीन पद्योंमें प्रथम पद्य इस प्रकार है-
श्री पूज्यपादोद्धृतधर्मराज्यस्ततो सुराधीश्वरपूज्यपादः । यदीय- वैदुष्यगुणानिदानीं वदन्ति शास्त्राणि तदुद्धृतानि ॥
२ पूज्यपाद द्वारा 'शब्दावतार' नामक न्यासके रचे जानेका हाल 'नगर' ताल्लु. केके ४६ वें शिलालेख ( E. C. VIII ) के निम्न वाक्यसे भी पाया जाता है—
न्यासं जैनेन्दसंज्ञं सकलबुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो - न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपादस्वामी भूपालवंद्यः स्वपरहितवचः पूर्णहग्बोधवृत्तः ॥
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