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समय-निर्णय |
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इसके सिवाय श्वेताम्बराचार्य हेमचंद्र और दिगम्बराचार्य श्रीधरसेनने अपने अपने कोशग्रंथोंमें 'नग्न' शब्दका एक अर्थ 'क्षपणक' दिया है' ननो विवाससि मागधे च क्षपणके । ( हेमचंद्रः ) 'नमस्त्रिषु विवस्त्रे स्यात्पुंसि क्षपणवन्दिनोः । ' ( श्रीधरसेनः ) और इससे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि ' क्षपणक ' शब्द जब किसी साधुके लिये प्रयुक्त किया जाता है तो उसका अभिप्राय ' नग्न अथवा दिगम्बर साधु होता है ।
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क्षपणक ' शब्दकी ऐसी हालत होते हुए, विक्रमादित्यकी सभा के क्षपणक' रत्नको श्वेताम्बर बतलाना बहुत कुछ आपत्तिके योग्य जान पड़ता है, और संदेह से खाली नहीं है ।
वास्तवमें सिद्धसेन दिगम्बर थे या श्वेताम्बर, यह एक जुदा ही विषय है और उसे हम एक स्वतंत्र लेखके द्वारा स्पष्ट कर देना चाहते हैं; अवसर मिलने पर उसके लिये जरूर यत्न किया जायगा । पूज्यपाद - समय ।
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दूसरे विद्वानों की युक्तियोंकी आलोचनाके बाद, अब हम देखते हैं कि स्वामी समन्तभद्र कब हुए हैं । समन्तभद्र जैनेंद्रव्याकरण और सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रंथोंके कर्ता ' देवनन्दि ' अपरनाम ' पूज्यपाद आचार्य से पहले हुए हैं, यह बात निर्विवाद है | श्रवणबेलगोल के शिलालेखमें भी समन्तभद्रको पूज्यपाद से पहलेका विद्वान् लिखा है । ४० वें शिलालेखमें समन्तभद्र के परिचेय-पद्यके बाद ' तत: ' शब्द लिख
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१ टोकांशः -- ' खवणउ वंदर सेवडउ' क्षपणको दिगम्बरोऽहं वंदको बौद्धोहं श्वेतपटादिलिंगधारको हमिति मूढात्मा सर्वं मन्यत इति । । — ब्रह्मदेवः । शिलालेखका पद्य भी,
२ समन्तभद्र के परिचयका यह पद्य और १०८ वें दोनों, ' गुणादिपरिचय' में उद्धृत किये जा चुके हैं।
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