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समय-निर्णय ।
१२७ आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्रं कापथघट्टनम् ॥९॥ इसमें संदेह नहीं कि यह पद्य समंतभद्रके 'रत्नकरंडक' नामक उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) का पद्य है, उसमें यथास्थान-यथाक्रम-मूलरूपसे पाया जाता है और उसका एक बहुत ही आवश्यक अंग है। यदि इस पद्यको उक्त ग्रंथसे निकाल दिया जाय तो उसके कथनका सिलसिला ही बिगड़ जाय । क्यों कि ग्रंथमें, जिन आप्त, आगम तपोभृत्के अष्ट अंगसहित और त्रिमूढतादिरहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया गया है उनका क्रमशः स्वरूप निर्देश करते हुए इस पद्यसे पहले आप्तका और इसके बाद तपोभृतका स्वरूप दिया है; यह पद्य यहाँ दोनोंके मध्यमें अपने स्थानपर स्थित है, और अपने विषयका एक ही पद्य है। प्रत्युत इसके, न्यायावतारमें इस पद्यकी स्थिति बहुत ही संदिग्ध जान पड़ती है। यह उसका कोई आवश्यक अंग मालूम नहीं होता, और न इसको निकाल देनेसे वहाँ ग्रंथके सिलसिलेमें अथवा उसके प्रतिपाद्य विषयमें ही कोई बाधा आती है । ग्रंथमें परोक्ष प्रमाणके 'अनुमान' और 'शाब्द' ऐसे दो भेदोंका कथन करते हुए, स्वार्थानुमानका प्रतिपादन और समर्थन करनेके बाद, इस पद्यसे ठीक पहले ' शाब्द' प्रमाणके लक्षणका यह पद्य दिया हुआ है
दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः।।
तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शाब्दं प्रकीर्तितम् ॥८॥ १ यह पद्य दोनों ही ग्रंथोंमें नंबर ९ पर दिया हुआ है, और ऐसा होना आकस्मिक घटनाका परिणाम है।
२ टीकामें इस पद्यसे पहले यह प्रस्तावना वाक्य दिया हुआ है
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