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समय-निर्णय ।
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कि ८ वें पद्य में ' शाब्द ' प्रमाणको जिस वाक्यसे उत्पन्न हुआ बतलाया गया है उसीका शास्त्र ' नामसे अगले पद्य में स्वरूप दिया गया है तो यह बात भी नहीं बनती; क्यों कि ८ वें पद्य में ही 'दृष्टेष्टाव्याहत' आदि विशेषणोंके द्वारा वाक्यका स्वरूप दे दिया गया है और वह स्वरूप अगले पद्य में दिये हुए शास्त्र के स्वरूप से प्रायः मिलता जुलता है – उसके 'दृष्टेष्टाव्याहत' का ' अदृष्टेष्टविरोधक ' के साथ साम्य है और उसमें ' अनुल्लंघ्य ' तथा ' आप्तोपज्ञ' विशेषणों का भी समावेश हो सकता है, 'परमार्थाभिधायि' विशेषण 'कापथघट्टन ' और ' सार्व' विशेषणोंके भावका द्योतक है, और शाब्दप्रमाrat 'तत्त्वग्राहितयोत्पन्न' प्रतिपादन करनेसे यह स्पष्ट ध्वनित है कि वह वाक्य 'तत्त्वोपदेशकृत् ' माना गया है – इस तरह पर दोनों पद्योंमें परस्पर बहुत कुछ साम्य पाया जाता है । ऐसी हालत में ग्रंथकारके लिये एक ही बातकी व्यर्थ पुनरुक्ति करनेकी कोई वजह नहीं हो सकती, खासकर ऐसे ग्रंथमें जो सूत्ररूपसे जँचे तुले शब्दों में लिखा जाता हो । पाँचवें, ग्रंथकारने स्वयं अगले पद्य में वाक्यको उपचारसे 'परार्थानुमान ' बतलाया है; यथा
स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः ।
परार्थं मानमाख्यातं वाक्यं तदुपचारतः ॥ १० ॥
इन सब बातों अथवा कारणों के समुच्चयसे यह स्पष्ट है कि 'न्यायावतार' में 'आप्तोपज्ञ' नामक पद्यकी स्थिति बहुत ही संदिग्ध है, वह मूल ग्रंथकारका पद्य मालूम नहीं होता, उसे मूल ग्रंथकारविरचित ग्रंथका आवश्यक अंग माननेसे पूर्वोत्तर पद्योंके मध्य में उसकी स्थिति व्यर्थ पड़ जाती है, ग्रंथकी प्रतिपादन शैली भी उसे स्वीकार नहीं करती,
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