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समय-निर्णय ।
१३३ 'द्वात्रिंशिकाएँ' मिलती हैं उन सबमें ३२ पद्योंका कोई नियम नहीं देखा जाता-आठवीं - द्वात्रिंशिकामें २६, ग्यारहवींमें २८, पंद्रहवीं में ३१, उन्नीसवींमें भी ३१, दसवीं में ३४ और इक्कीसवींमें ३३ पद्य पाये जाते हैं । ऐसी हालतमें 'न्यायावतार के लिये ३२ पद्योंका कोई आग्रह नहीं किया जा सकता, और न यही कहा जा सकता है कि ३१ पद्योंसे उसके परिमाणमें कोई बाधा आती है।
अब देखना चाहिये कि सिद्धसेन दिवाकर कब हुए हैं और समंतभद्र उनसे पहले हुए या कि नहीं । कहा जाता है कि सिद्धसेन दिवाकर उज्जयिनीके राजा विक्रमादित्यकी सभाके नवरत्नोंमेंसे एक स्न थे, और उन नवरत्नोंके नामोंके लिये 'ज्योतिर्विदाभरण' ग्रंथका निम्न पद्य पेश किया जाता हैधन्वंतरिः क्षपणकोऽमरसिंहशंकुर्वेतालभट्टघटखपरकालिदासाः । ख्यातो वाराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव
विक्रमस्य ॥ इस पद्यमें, यद्यपि, 'सिद्धसेन' नामका कोई उल्लेख नहीं है परन्तु 'क्षपणक' नामके जिस विद्वानका उल्लेख है उसीको 'सिद्धसेन दिवाकर' बतलाया जाता है । डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण तो, इस विषयमें अपनी मान्यताका उल्लेख करते हुए, यहाँ तक लिखते हैं कि 'जिस क्षपणक ( जैनसाधु ) को हिन्दुलोग विक्रमादित्यकी सभाको भूषित करनेवाले नवरत्नों से एक रत्न समझते हैं वह सिद्धसेनके सिवाय
___ * देखो 'श्रीसिद्धसेनदिवाकरकृत ग्रंथमाला' जिसे 'जैनधर्मप्रसारक सभा' भावनगरने वि० सं० १९६५ में छपाकर प्रकाशित किया ।
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