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स्वामी समंतभद्र ।
-कर्ता "
लिये हुए मालूम नहीं होता - जिसका एक उदाहरण न्यायदीपिका के धर्मभूषण का समय है । आपने धर्मभूषणका समय ई० सन् १६०० के करीब दिया है परंतु उनकी न्यायदीपिका शक संवत् १३०७ में लिखी गई है, ऐसा प्रो० के० बी० पाठकने, 'साउथ इंडियन इंस्क्रिप्शन्स जिल्द १ली, पृष्ठ १५६' के आधार पर अपने उक्त निबंध में सूचित किया है। ऐसी हालत में आपको धर्मभूषणका समय ई० सन् १३८५, या '१४०० के करीब' देना चाहिये था; परंतु ऐसा न करके आपने धर्मभूषणको उनके असली समयसे एकदम २०० वर्ष पीछेका विद्वान् करार दिया है और यह लिख दिया है कि करीब ३०० वर्ष ( ५३२ के स्थान में ) हुए जब उन्होंने न्यायदीपिका लिखी थी ! इससे स्पष्ट है कि विद्याभूषणजीने जैन विद्वानका ठीक समय मालूम करनेके लिये कोई विशेष प्रयास नहीं किया और इस लिये इस विषय में उनका वह कथन, जो विशेष युक्तियों को साथमें लिये हुए नहीं है, कुछ अधिक विश्वासके योग्य मालूम नहीं होता -- कितने ही स्थानों पर तो वह बहुत ही भ्रमोत्पादक जान पड़ता है । समंतभद्रका अस्तित्व-विषयक कथन आपका कितना भ्रमपूर्ण है इस बातका और भी अच्छा अनुभव पाठकोंको आगे चल कर हो जायगा । सिद्धसेन और न्यायावतार ।
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५ – कुछ विद्वानोंका ख़याल है कि स्वामी समंतभद्र सिद्धसेन दिवाकरसे पहले हुए हैं । सिद्धसेन यदि विक्रमादित्य राजाकी सभा के नवरत्नों में से थे और इस लिये विक्रमकी प्रथम शताब्दी के विद्वान् समझे जाते हैं तो समंतभद्र उससे भी पहले के - ईसाकी पहली शताब्दीसे भी पहले के - विद्वान् होने चाहियें; क्यों कि समन्तभद्र के 'रत्नकरण्डक' का निम्न पद्य सिद्धसेनके ' न्यायावतार' में
उद्धृत पाया जाता है
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