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समय-निर्णय ।
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आपका यह मान लेना जरा भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । समंतभद्र कुमारिलसे अधिक समय पहले न होकर अल्पसमय पहले ही हुए हैं, इस बातकी उक्त उल्लेख मात्रमें क्या गारंटी है ! इस बातको सिद्ध करनेके लिये तो विशेष प्रमाणोंकी आवश्यकता थी, जिनका उक्त पुस्तकमें अभाव पाया जाता है।
धर्मकीर्तिके प्रकरणमें, विद्याभूषणजीने धर्मकीर्तिका स्पष्ट समय ( संभवतः धर्मकीर्तिके आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहनेका समय ) ई० सन् ६३५ से ६५० के लगभग बतलाया है और इस समयकी पुष्टिमें तीन बातोंका उल्लेख किया है-एक तो यह कि धर्मकीर्तिका गुरु धर्मपाल ई० सन् ६३५ में जीवित था, इसी सन तक उसके अस्तित्वका पता चलता है, इससे धर्मकीर्ति भी उस समयके करीब मौजूद होना चाहिये; दूसरे यह कि धर्मकीर्ति तिब्बतके राजा ' स्रोण-सन्गम्पो' का समकालीन था, जिसका अस्तित्व समय ई० सन् ६२७ से ६९८ तक पाया जाता है, और इस समयके साथ धर्मकीर्तिका समय अनुकूल पड़ता है; तीसरे यह कि 'इ-त्सिंग ' नामक चीनी यात्रीने ई० सन् ६७१ से ६९५ के मध्यवर्ती समयमें भारतकी यात्रा की है; वह ( अपने यात्रावृत्तान्तमें ) बड़ी खूबीके साथ इस बातको प्रकट करता है कि किस तरह पर ' दिग्नाग' के बाद "धर्मकीर्तिने तर्कशास्त्रमें और अधिक उन्नति की हैं ।" इसके सिवाय धर्मकीर्तिकी बौद्ध दीक्षाके बाद, विद्याभूषणजीने यह भी प्रकट किया है कि धर्मकीर्तिने तीर्थदर्शन ( Tirtha
१ इसी सन् ६३५ में; चीनी यात्री ह्वेनसंग जब नालंदाके विश्वविद्याल. बमें पहुँचा तो वहाँ उक्त धर्मपालकी जगह, प्रधान पदपर, उनका एक शिष्य. शीलभद्र प्रतिष्ठित हो चुका था; ऐसा विद्याभूषणजीकी उक्त पुस्तकसे पाया जाता है।
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