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मुनि-जीवन और आपत्काल ।
जयकोलाहलके साथ प्रकट हुई । यह देखकर राजादिकको बड़ा आश्चर्य हुआ और राजाने उसी समय समन्तभद्रसे पूछा-हे योगीन्द्र, आप महा सामर्थ्यवान् अव्यक्तलिंगी कौन हैं ? इसके उत्तरमें समन्तभद्रने नीचे लिखे दो काव्य कहे
कांच्यां ननाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिंडः पुण्ड्रोण्ड्रे (?) शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे मृष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशिधरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी, राजन् यस्यास्ति शक्तिः सं वदतु पुरतो जैननिग्रंथवादी ॥ पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे मेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचाराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ॥
इसके बाद समन्तभद्रने कुलिंगिवेष छोड़कर जैननिग्रंथ लिंग धारण किया और संपूर्ण एकान्तवादियोंको वादमें जीतकर जैनशासनकी प्रभावना की । यह सब देखकर राजाको जैनधर्ममें श्रद्धा हो गई, वैराग्य हो आया और राज्य छोड़कर उसने जिनदीक्षा धारण कर ली ।"
१ संभव है कि यह 'पुण्ड्रोड्रे' पाठ हो, जिससे 'पुण्ड्'-उत्तर बंगाल-और 'उडू' उड़ीसा-दोनोंका अभिप्राय जान पड़ता है । - २ कहींपर 'शशधरधवलः' भी पाठ है जिसका, अर्थ चंद्रमाके समान उज्वल होता है। .. ३ 'प्रवदतु' भी पाठ कहीं कहीं पर पाया जाता है।
* ब्रह्म नेमिदत्तके कथनानुसार उसका कथाकोश भट्टारक प्रभाचन्द्रके उस कथाकोशके आधारपर बना हुआ है जो गद्यात्मक है और जिसको देखनेका हमें अभी तक कोई अवसर नहीं मिल सका । हालमें सुहृदूर पं० नाथूरामजी प्रेमीने हमारी
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