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मुनि-जीवन और आपत्काल । १०३ और इस लिये आप यहाँसे भी चल दिये । इसके बाद नानादिग्देशादिकोंमें घूमते हुए आप अन्तको 'वाराणसी ' नगरी पहुँचे और वहाँ आपने योगिलिङ्ग धारण करके शिवकोटि राजाके शिवालयमें प्रवेश किया। इस शिवालयमें शिवजीके भोगके लिये तय्यार किये हुए अठारह प्रकारके सुन्दर श्रेष्ठ भोजनोंके समूहको देख कर आपने सोचा कि यहाँ मेरी दुर्व्याधि जरूर शांत हो जायगी । इसके बाद जब पूजा हो चुकी और वह दिव्य आहार-ढेरका ढेर नैवेद्य-बाहर निक्षेपित किया गया तब आपने एक युक्ति के द्वारा लोगों तथा राजाको आश्चर्यमें डालकर शिवको भोजन करानेका काम अपने हाथमें लिया। इस पर राजाने घी, दूध, दही और मिठाई ( इक्षुरस ) आदिसे मिश्रित नाना प्रकारका दिव्य भोजन प्रचुर परिमाणमें (पूर्णैः कुंभशतैर्युक्तं भरे हुए सौ घड़े जितना) तय्यार कराया और उसे शिवभोजनके लिये योगिराजके सपुर्द किया । समंतभद्रने वह भोजन स्वयं खाकर जब मंदिरके कपाट खोले
और खाली बरतनोंको बाहर उठा ले जानेके लिये कहा, तब राजादिकको बड़ा आश्चर्य हुआ। यही समझा गया कि योगिराजने अपने योगबलसे साक्षात् शिवको अवतारित करके यह भोजन उन्हें ही कराया है। इससे राजाकी भक्ति बढ़ी और वह नित्य ही उत्तमोत्तम नैवेद्यका समूह तैयार करा कर भेजने लगा। इस तरह, प्रचुर परिमाणमें उत्कृष्ट आहारका सेवन करते हुए, जब पूरे छह महीने बीत गये तब आपकी व्याधि एकदम शांत हो गई और आहारकी मात्रा प्राकृतिक हो जाने के कारण वह सबका सब नैवेद्य प्रायः ज्योंका त्यों बचने लगा। इसके बाद राजाको जब यह खबर लगी कि योगी स्वयं ही वह भोजन करता रहा है और 'शिव' को प्रणाम तक भी नहीं करता तब उसने कुपित होकर योगीसे प्रणाम न करनेका कारण
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