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स्वामी समन्तभद्र।
कहा जा सकता है कि वह उक्त पद्यका दूसरा रूप है जो करहाटकके बाद किसी दूसरी राजसभामें कहा गया होगा। परंतु. वह दूसरी राजसभा कौनसी थी अथवा करहाटकके बाद समंतभद्रने और कहाँ कहाँ पर अपनी वादभेरी बजाई है, इन सब बातोंके जाननेका इस समय साधन नहीं है । हाँ, राजावलीकथे आदिसे इतना जरूर मालूम होता है कि समंतभद्र कौशाम्बी, मणुवकहल्ली, लाम्बुश (2), पुण्डोड, देशपुर और वाराणसी (बनारस ) में भी कुछ कुछ समय तक रहे हैं । परंतु करहाटक पहुँचनेसे पहले रहे हैं या पीछे, यह कुछ ठीक मालूम नहीं हो सका।
बनारसमें आपने वहाँके राजाको सम्बोधन करके यह वाक्य भी कहा था कि'राजन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी ।" अर्थात्-हे राजन् मैं जैननिर्ग्रन्थवादी हूँ, जिस किसीकी भी शक्ति मुझसे वाद करनेकी हो वह सन्मुख आकर वाद करे। __ और इससे आपकी वहाँपर भी स्पष्ट रूपसे वादघोषणा पाई जाती है । परन्तु बनारसमें आपकी वादघोषणा ही होकर नहीं रह गई, बल्कि वाद भी हुआ जान पड़ता है जिसका उल्लेख तिरुमकूडलु
१ अलाहाबादके निकट यमुना तट पर स्थित नगर; यहाँ एक समय बौद्ध. धर्मका बड़ा प्रचार रहा है । यह वत्सदेशकी राजधानी थी।
२ उत्तर बंगालका पुण्ड नगर ।
३ कुछ विद्वानोंने ' दशपुर'को आधुनिक 'मंदसौर ' ( मालवा ) और कुछने ' धौलपुर ' लिखा है; परंतु पम्परामायण ( ७-३५) में उसे 'उज्जयिनी के पासका नगर बतलाया है और इसलिये वह ' मन्दसौर ' ही मालूम होता है ।
४ यह ' कांच्या ननाटकोहे' पद्यका चौथा चरण है।
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