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गुणादिपरिचय । घोरभूरिदुःखवार्धितारणाक्षमामिमां चारुचेतसा स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥ ६॥ सान्तनाद्यनाद्यनन्तमध्ययुक्तमध्यमां शून्यभावसर्ववेदि तत्त्वसिद्धिसाधनीं। हेत्वहेतुवादसिद्धवाक्यजालभासुरां मोक्षसिद्धये स्तुवे समन्तभद्रभारतीम् ॥ ७॥ व्यापकद्वयाप्तमार्गतत्त्वयुग्मगोचरां पापहारिवाग्विलासिभूषणांशुकां स्तुवे । श्रीकरीं च धीकरी च सर्वसौख्यदायिनी
नागराजपूजितां समन्तभद्रभारतीम् ॥ ८॥ इस 'समन्तभद्रभारतीस्तोत्र' में, स्तुतिके साथ, समन्तभद्रके वादों, भाषणों और ग्रंथोंके विषयका यत्किचित् दिग्दर्शन कराया गया है । साथ ही, यह सूचित किया गया है कि समन्तभद्रकी भारती आचार्योंकी सूक्तियोंद्वारा वंदित, मनोहर कीर्तिसे देदीप्यमान और क्षीरोदधिकी समान उज्ज्वल तथा गंभीर है; पापोंको हरना, मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान, मिथ्या चारित्रको दूर करना ही उस वाग्देवीका एक आभूषण और वाग्विलास ही उसका एक वस्त्र है; वह घोर दुःखसागरसे पार करनेके लिये समर्थ है, सर्व सुखोंको देनेवाली है और जगतके लिये हितरूप है। .
यह हम पहले ही प्रकट कर चुके हैं कि समंतभद्रकी जो कुछ . वचनप्रवृत्ति होती थी वह सब प्रायः दूसरोंके हितके लिये ही होती
थो; यहाँ भी इस स्तोत्रसे वही बात पाई जाती है, और ऊपर दिये - हुए दूसरे कितने ही आचार्योंके वाक्योंसे भी उसका पोषण तथा
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