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मुनि-जीवन और आपत्काल । ९३. देवप्रसाद बतलाया, परंतु राजाको उससे संतोष नहीं हुआ। चौथे दिन जब और भी अधिक परिमाणमें भोजन बच गया तब राजाका संदेह बढ़ गया और उसने पाँचवें दिन मंदिरको, उस अवसर पर, अपनी सेनासे घिरवाकर दरवाजेको खोल डालनेकी आज्ञा दी । दरवाजेको खोलनेके लिये बहुतसा कलकल शब्द होने पर समंतभद्रने उप-- सर्गका अनुभव किया और उपसर्गकी निवृत्तिपर्यंत समस्त आहारपानका त्याग करके तथा शरीरसे बिलकुल ही ममत्व छोड़कर, आपने बड़ी ही भक्ति के साथ एकाग्रचित्तसे श्रीवृषभादि चतुर्विंशति तीर्थंकरोंकी स्तुति करना आरंभ किया । स्तुति करते हुए समंतभद्रने जब आठवें तीर्थंकर श्रीचंद्रप्रभ स्वामीकी भलेप्रकार स्तुति करके भीमलिंगकी
ओर दृष्टि की, तो उन्हें उस स्थानपर किसी दिव्य शक्तिके प्रतापसे, चंद्रलांछनयुक्त अर्हत भगवानका एक जाज्वल्यमान सुवर्णमय विशाल बिम्ब, विभूतिसहित, प्रकट होता हुआ दिखलाई दिया। यह देखकर समंतभद्रने दरवाजा खोल दिया और आप शेष तीर्थंकरोंकी स्तुति करनेमें तल्लीन हो गये। दरवाजा खुलते ही इस माहात्म्यको देखकर शिवकोटि राजा बहुत ही आश्चर्यचकित हुआ और अपने छोटे भाई 'शिवायन' सहित, योगिराज श्रीसमंतभद्रको उदंड नमस्कार करता हुआ उनके चरणोंमें गिर पड़ा। समंतभद्रने, श्रीवर्द्धमान महावीरपर्यंत स्तुति कर चुकनेपर, हाथ उठाकर दोनोंको आशीर्वाद दिया । इसके बाद धर्मका विस्तृत स्वरूप सुनकर राजा संसार-देह-भोगोंसे विरक्त हो गया और उसने अपने पुत्र 'श्रीकंठ' को राज्य देकर 'शिवायन सहित उन मुनिमहाराजके समीप जिनदीक्षा धारण की। और भी कितने
१ इसी स्तुतिको ' स्वयंभूस्तोत्र' कहते हैं ।
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