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स्वामी समन्तभद्र ।
ही लोगों की श्रद्धा इस माहात्म्यसे पलट गई और वे अणुव्रतादिकके ' धारक हो गये * ।
इस तरहपर समंतभद्र थोड़े ही दिनों में अपने ' भस्मक' रोगको भस्म करने में समर्थ हुए, उनका आपत्काल समाप्त हुआ, और देहके प्रकृतिस्थ हो जानेपर उन्होंने फिरसे जैनमुनिदीक्षा धारण कर ली ।
श्रवणबेल्गोलके एक शिलालेख में भी, जो आजसे करीब आठ सौ वर्ष पहलेका लिखा हुआ है, समन्तभद्रके 'भस्मक' रोगकी शांति, एक 'दिव्यशक्ति के द्वारा उन्हें उदात्त पदकी प्राप्ति और योगसामर्थ्य अथवा वचन-बलसे उनके द्वारा ' चंद्रप्रभ ' ( बिम्ब ) की आकृष्टि आदि कितनी ही बातों का उल्लेख पाया जाता है । यथा-
वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपद - स्वमंत्रवचनव्याहूतचंद्रप्रभः । आचार्यस्स समन्तभद्रगणभृद्येनेह काले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः || इस पद्यमें यह बतलाया गया है कि, जो अपने 'भस्मक' रोगको भस्मसात् करने में चतुर हैं, 'पद्मावती' नामकी दिव्य शक्तिके द्वारा जिन्हें उदात्त पदकी प्राप्ति हुई, जिन्होंने अपने मंत्रवचनोंसे ( बिम्बरूप में ) ' चंद्रप्रभ' को बुला लिया और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी
* देखो 'राजावलिकथे' का वह मूल पाठ, जिसे मिस्टर लेविस राइस साहबने अपनी Inscriptions at Sravanabelgola नामक पुस्तककी प्रस्तावना के पृष्ठ ६२ पर उद्धृत किया है। इस पाठका अनुवाद हमें वर्णी नेमिसागर की कृपा से प्राप्त हुआ, जिसके लिये हम उनके आभारी हैं ।
१ इस शिलालेखका पुराना नंबर ५४ तथा नया नं० ६७ है; इसे 'मल्लिषेणप्रशस्ति' भी कहते हैं, और यह शक संवत् १०५० का लिखा हुआ है ।
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