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गुणादिपरिचय । उन्हें प्रायः इसी विशेषणके साथ स्मरण किया है। यद्यपि और भी कितने ही आचार्य ' स्वामी' कहलाते थे परंतु उनके साथ यह विशेषण उतना रूढ नहीं है जितना कि समंतभद्रके साथ रूढ जान पड़ता है-समंतभद्रके नामका तो यह प्रायः एक अंग ही हो गया है । इसीसे कितने ही महान् आचार्यों तथा विद्वानोंने, अनेक स्थानों पर नाम न देकर, केवल 'स्वामी' पदके प्रयोग द्वारा ही आपका नामोल्लेख किया है * और इससे यह बात सहजहीमें समझमें आ सकती है कि आचार्य महोदयकी ' स्वामी ' रूपसे कितनी अधिक प्रसिद्धि थी । निःसंदेह, यह पद आपकी महती प्रतिष्ठा और असाधारण महत्ताका द्योतक है । आप सचमुच ही विद्वानोंके स्वामी थे, त्यागियोंके स्वामी थे, तपस्वियोंके स्वामी थे, ऋषिमुनियोंके स्वामी थे, सद्गुणियोंके स्वामी थे, सत्कृतियों के स्वामी थे और लोकहितैषियोंके स्वामी थे।
* देखो-वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरितका ' स्वामिनश्चरितं' नामका पद्य जो ऊपर उद्धृत किया गया है; पं० आशाधरकृत सागारधर्मामृत और अनगारधर्मामृतकी टीकाओंके 'स्वाम्युक्ताष्टमूलगुणपक्षे, इति स्वामिमतेन दर्शनिको भवेत् , स्वामिमतेन स्विमे ( अतिचाराः), अत्राह स्वामी यथा, तथा च स्वामिसूक्तानि' इत्यादि पद; न्यायदीपिकाका 'तदुक्तं स्वामिभिरेव' इस वाक्यके साथ 'देवागम' की दो कारिकाओंका अवतरण; और श्रीविद्यानंदाचार्यकृत अष्टसहस्री आदि ग्रंथोंके कितने ही पद्य तथा वाक्य जिनमेंसे 'नित्यायेकान्त' आदि कुछपद्य ऊपर उद्धृत किये जा चुके हैं।
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