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स्वामी समन्तभद्र ।
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क्षेपण करते थे । इसके सिवाय, उन पर यदि कोई प्रहार करता तो वे उसे नहीं रोकते थे, उसके प्रति दुर्भाव भी नहीं रखते थे; जंगल में यदि हिंस्र जंतु भी उन्हें सताते अथवा डंस मशकादिक उनके शरीरका रक्त पीते थे तो वे बलपूर्वक उनका निवारण नहीं करते थे, और न ध्याना - वस्था में अपने शरीर पर होनेवाले चींटी आदि जंतुओंके स्वच्छंद विहारको ही रोकते थे । वे इन सब अथवा इसी प्रकारके और भी कितने ही, उपसर्गों तथा परीषहोंको साम्यभावसे सहन करते थे और अपने ही कर्मविपाकका चिन्तवन कर सदा धैर्य धारण करते थे -दूसरों को उसमें जरा भी दोष नहीं देते थे ।
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समन्तभद्र सत्यके बड़े प्रेमी थे; वे सदा यथार्थ भाषण करते थे, इतना ही नहीं बल्कि, प्रमत्तयोग से प्रेरित होकर कभी दूसरोंको पीड़ा पहुँचानेवाला सावद्य वचन भी मुँहसे नहीं निकालते थे; और कितनी ही बार मौन धारण करना भी श्रेष्ठ समझते थे । स्त्रियों के प्रति आपका अनादर भाव न होते हुए भी आप कभी उन्हें रागभावसे नहीं देखते थे; बल्कि माता, बहिन और सुताकी तरहसे ही पहचानते थे; साथ ही, मैथुन कर्मसे, घृणात्मक दृष्टिके साथ, आपकी पूर्ण विरक्ति रहती थी, और आप उसमें द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकारकी हिंसाका सद्भाव मानते. थे । इसके सिवाय, प्राणियोंकी अहिंसाको आप 'परमब्रह्म' समझते थे
१ आपकी इस घृणात्मक दृष्टिका भाव ' ब्रह्मचारी' के निम्न लक्षणसे भी पाया जाता है, जिसे आपने ' रत्नकरंडक' में दिया है—
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मलबीजं मलयोनिं गलन्मलं पूतिगंधि बीभत्सं । पश्यन्नं गमनं गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः ॥ १४३ ॥ अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, न सा तत्रारंभस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ !
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