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स्वामी समंतभद्र।
इष्ट है और इस लिये वह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उपपत्तिका एक
___इससे स्पष्ट है कि समंतभद्रके ग्रंथोंका प्रणयन-उनके वचनोंका अवतार—किसी तुच्छ रागद्वेषके वशवर्ती होकर नहीं हुआ है। वह आचार्य महोदयकी उदारता तथा प्रेक्षापूर्वकारिताको लिये हुए है और उसमें उनकी श्रद्धा तथा गुणज्ञता दोनों ही बातें पाई जाती हैं । साथ ही, यह भी प्रकट है कि समंतभद्रके ग्रंथोंका उद्देश्य महान् है, लोकहितको लिये हुए है, और उनका प्रायः कोई भी विशेष कथन गुणदोषोंकी अच्छी जाँचके बिना निर्दिष्ट हुआ नहीं जान पड़ता। ___ यहाँ तकके इस सब कथनसे ऐसा मालूम होता है कि समंतभद्र अपने इन सब गुणोंके कारण ही लोकमें अत्यंत महनीय तथा पूजनीय थे और उन्होंने देश-देशान्तरोंमें अपनी अनन्यसाधारण कीर्तिको प्रतिष्ठित किया था। निःसन्देह, वे सद्बोधरूप थे, श्रेष्ठगुणोंके आवास थे, निर्दोष थे और उनकी यश:कान्तिसे तीनों लोक अथवा भारतके उत्तर, दक्षिण और मध्य ये तीनों विभाग कान्तिमान थे-उनका यशस्तेज सर्वत्र फैला हुआ था; जैसा कि कवि नरसिंह भट्टके निम्न वाक्यसे पाया जाता है
समन्तभद्रं सद्बोधं स्तुवे वरगुणालयं । निर्मलं यद्यशष्कान्तं बभूव भुवनत्रयं ॥ २॥
-जिनशतकटीका । अपने इन सब पूज्य गुणोंकी वजहसे ही समंतभद्र लोकमें 'स्वामी' 'पदसे खास तौर पर विभूषित थे। लोग उन्हें ' स्वामी' 'स्वामीजी' " कह कर ही पुकारते थे, और बड़े बड़े आचार्यों तथा विद्वानोंने भी
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