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गुणादिपरिचय |
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नरसीपुर ताल्लुकेके शिलालेख नं० १०५ के निम्नपद्यसे, जो शक संo ११०५ का लिखा हुआ है, पाया जाता है
समन्तभद्रस्संस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः । वाराणसीश्वरस्याग्रे निर्जिता येन विद्विषः ॥
इस पद्यमें लिखा है कि ' वें समन्तभद्र मुनीश्वर जिन्होंने वाराणसी (बनारस) के राजाके सामने शत्रुओंको – मिथ्यैकान्तवादियोंकोपरास्त किया है किसके स्तुतिपात्र नहीं हैं ? अर्थात्, सभीके द्वारा स्तुति किये जानेके योग्य हैं।
समन्तभद्रने अपनी एक ही यात्रामें इन सब देशों तथा नगरों में परिभ्रमण किया है अथवा उन्हें उसके लिये अनेक यात्राएँ करनी पड़ी हैं, इस बातका यद्यपि, कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता फिर भी अनुभवसे और आपके जीवनकी कुछ घटनाओंसे यह जरूर मालूम होता है कि आपको अपनी उद्देशसिद्धिके लिये एकसे अधिक बार यात्रा के लिये उठना पड़ा है- ठक्क ' से कांची पहुँच जाना और फिर वापिस वैदिश तथा करहाटकको आना भी इसी बात को सूचित करता है । बनारस आप कांचीसे चलकर ही, दशपुर होते हुए, पहुँचे थे ।
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समन्तभद्रके सम्बंधमें यह भी एक उल्लेख मिलता है कि वे 'पदर्द्धिक' थे- चारण ऋद्धिसे युक्त थे - अर्थात् उन्हें तपके प्रभाव से चलने की
१ ' तत्त्वार्थ- राजवार्तिक' में भट्टाकलंकदेवने चारणर्द्धियुक्तोंका जो कुछ स्वरूप दिया है वह इस प्रकार है - ' क्रियाविषया ऋद्धिर्द्विविधा चारणत्वमाकाशगामित्वं चेति । तत्र चारणा अनेकविधाः जलजंघातंतुपुष्पपत्रश्रेण्यग्निशिखाद्यालंबनगमनाः । जलमुपादाय वाप्यादिष्वप्कायान् जी निविराधयंतः भूमाविव पादोद्धार निक्षेपकुशला जलचारणाः । भुव उपर्याकाशे चतुरंगुलप्रमाणे जंघोरक्षेपनिक्षेपशीघ्रकरणपटवो बहुयोजनशतासु गमनप्रवणा जंघचारणाः । एवमितरे च वेदितव्याः ।' - अध्याय ३, सूत्र ३६ ।
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