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स्वामी समन्तभद्र ।
श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन्भूमि मंगुष्ठैरानताननाः ।। ५- १५६
पहले पद्यसे यह सूचित होता है कि कुबादीजन अपनी स्त्रियों के थे— उन्हें अपनी गर्वोक्तियाँ
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निकट तो कठोर भाषण किया करते सुनाते थे— परंतु जब समंतभद्र यतिके सामने आते थे तो मधुर भाषी बन जाते थे और उन्हें ' पाहि पाहि ' - रक्षा करो, रक्षा करो, अथवा आप ही हमारे रक्षक हैं; ऐसे सुन्दर मृदुवचन ही कहते बनता था । और दूसरा पद्य यह बतलाता है कि जब महावादी समंतभद्र : ( सभास्थान आदिमें) आते थे तो कुत्रादि जन नीचा मुख करके अँगूठोंसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे - अर्थात् उन लोगों पर - प्रतिवादि - यों पर समंतभद्रका इतना प्रभाव पड़ता था कि वे उन्हें देखते हीं विषण्ण वदन हो जाते और किं कर्तव्यविमूढ बन जाते थे ।
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(११) अजितसेनाचार्य के ' अलंकार - चिन्तामणि ' ग्रंथ में और कवि हस्तिमल्ल के 'विक्रान्तकौरव' नाटककी प्रशस्तिमें एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है—
अतटमटति झटिति स्फुटपटुवाचाट धूर्जटेर्जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति सति का कथान्येषाम् || इसमें यह बतलाया है कि वादी समन्तभद्रकी उपस्थितिमें, चतुराईके साथ स्पष्ट, शीघ्र और बहुत बोलनेवाले धूर्जटिकी जिह्वा ही जब शीघ्र अपने बिलमें घुस जाती है— उसे कुछ बोल नहीं आता- तो फिर
१ ' जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय 'ग्रंथकी प्रशस्ति में भी, जो शक सं० १२४१ में बनकर समाप्त हुआ है, यह पद्य पाया जाता है, सिर्फ 'धूर्जटेर्जिह्वा' के स्थान में < धूर्जटेरपि जिह्वा ' यह पाठान्तर कुछ प्रतियों में देखा जाता है ।
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