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स्वामी समन्तभद्र। प्रशस्ति नामके ५४ वे (६७ वें) शिलालेखमें पाया जाता है और वह रूप इस प्रकार हैअवटुंतटमटति झटिति स्फुटपटुवाचाटधूर्जटेरपि जिहा।। वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तव सदसि भूप कास्थान्येषां ॥ ___ इस पद्यमें 'धूर्जटि 'के बाद 'अपि' शब्द ज्यादा है और चौथे चरणमें 'सति का कथान्येषां की जगह 'तव सदसि भूपकास्थान्येषां ये शब्द दिये हुए हैं । साथ ही इसका छंद भी दूसरा है। पहला पद्य 'आर्या' और यह ‘ आर्यागीति' नामके छंदमें है, . जिसके समचरणोंमें बीस बीस मात्राएँ होती हैं । अस्तु; इस पद्यमें पहले पद्यसे जो शब्दभेद है उस परसे यह मालूम होता है कि यह पद्य समंतभद्रकी ओरसे अथवा, उनकी मौजूदगीमें, उनके किसी शिष्यकी तरफसे, किसी राजसभामें, राजाको सम्बोधन करके कहा गया है । वह राजसभा चाहे वही हो जिसमें 'धूर्जटि ' को पराजित किया गया है और या वह कोई दूसरी ही राजसभा हो । पहली हालतमें यह पद्य धूर्जटिके निरुत्तर होनेके बाद सभास्थित दूसरे विद्वानोंको लक्ष्य करके कहा गया है और उसमें राजासे यह पूछा गया है कि धूर्जटि जैसे विद्वानकी ऐसी हालत होनेपर अब आपकी सभाके दूसरे विद्वानोंकी क्या आस्था है ? क्या उनमेंसे कोई बाद करनेकी हिम्मत रखता है ! दूसरी हालतमें, यह पद्य समंतभद्रके वादारंभ समयका वचन मालूम होता है और उसमें धूर्जटिकी स्पष्ट तथा गुरुतर पराजयका उल्लेख करके दूसरे विद्वानोंको यह चेतावनी दी गई है कि
१ दावणगेरे ताल्लुकके शिलालेख नं. ९० में भी, जो चालुक्य विक्रमके ५३ वें वर्ष, कीलक संवत्सर ( ई. सन् ११२८ ) का लिखा हुआ है, यह पद्य इसी प्रकार दिया है । देखो एपिग्रेफिया कर्णाटिका, जिल्द ११ वीं।
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