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स्वामी समन्तभद्र।
समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्वादीभवज्रांकुशसूक्तिजालः। ... यस्य प्रभावात्सकलावनीयं ।
वंध्यास दुर्वादुकवार्त्तयापि ॥ इस पद्यके बाद, इसी शिलालेखमें, नीचे लिखा पद्य भी दिया हुआ है और उसमें समन्तभद्रके वचनोंको ' स्फुटरत्नदीप' की उपमा दी है
और यह बतलाया है कि वह दैदीप्यपान रत्नदीपक उस त्रैलोक्यरूपी संपूर्ण महलको निश्चित रूपसे प्रकाशित करता है जो स्यात्कारमुद्राको लिये हुए समस्तपदार्थोंसे पूर्ण है और जिसके अन्तराल दुर्वादकोंकी उक्तिरूपी अन्धकारसे आच्छादित हैं---
स्यात्कारमुद्रितसमस्तपदार्थपूर्ण त्रैलोक्यहर्म्यमखिलं स खलु व्यनक्ति । दुर्वादुकोक्तितमसा पिहितान्तरालं
सामन्तभद्रवचनस्फुटरत्नदीपः ॥ ४० वें शिलालेखमें भी, जिसके पद्य ऊपर उद्धृत किये गये हैं, समन्तभद्रको 'स्यात्कारमुद्रांकिततत्त्वदीप' और 'वादिसिंह' लिखा है। इसी तरह पर श्वेताम्बरसम्प्रदायके प्रधान आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिने, अपनी ' अनेकान्तजयपताका' में समंतभद्रका 'वादिमुख्य' विशेषण दिया है और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें लिखा है-“आह च
वादिमुख्यः समंतभद्रः।" ' (८) गद्यचिन्तामणिमें, महाकवि वादीभसिंह समंतभद्र मुनीश्वरको ' सरस्वतीकी स्वच्छंदविहारभूमि ' लिखते हैं, जिससे यह सूचित होता है कि समंतभद्रके हृदय-मंदिरमें सरस्वती देवी विना
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