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येनाज्ञानतमो विनाश्य निखिलं भव्यात्मचेतोगतं सम्यग्ज्ञानमहांशुभिः प्रकटितः सागार मार्गोऽखिलः । सश्रीरत्नकरण्डकामलरविः संसृत्सरिच्छोषको जीयादेष समन्तभद्रमुनिपः श्रीमत्प्रभेन्दुर्जिनः ॥ - रत्नकरण्डकटीका ।
इन दोनों पद्योंमें, अपने अपने ग्रंथके प्रतिपाद्य विषयका सारांश देते हुए,. जिस युक्तिसे जिनदेव, ग्रंथकार (श्रीपादपूज्य, समन्तभद्रमुनि ), ग्रंथ ( समाधिशतक, रत्नकरण्डक ) और टीकाकार ( प्रभेन्दु - प्रभाचंद्र ) को आशीर्वाद दिया गया है वह दोनोंमें बिलकुल एक ही है, दोनोंकी प्रतिपादनशैली अथवा लेखन -- पद्धतिमें जरा भी भेद नहीं है, छंद भी दोनोंका एक ही है और दोनों में येन, जिनः, श्रीमान्, प्रभेन्दुः, सः, जीयात्, पदोंकी जो एकता और कीर्तितः प्रकटितः आदि पदोंके प्रयोगकी जो समानता पाई जाती है वह मूल पद्योंपर से प्रकट ही है, उसे और स्पष्ट करके बतलानेकी कोई जरूरत नहीं है ।
सादृश्यविषयक इस सब कथन परसे पाठक सहज ही में अनुमान कर सकते हैं कि ये दोनों टीकाएँ एक ही विद्वानकी बनाई हुई हैं और वे विद्वान् वही प्रतीत होते हैं जिन्हें, उक्त गुर्वावली में 'पूज्यपादीयशास्त्र व्याख्याविख्यातकीर्तिः विशेषण के साथ स्मरण किया है—अर्थात्, रत्नकीर्तिके पट्टशिष्य प्रभाचंद्र । इन प्रभाचंद्रके पट्टारोहणका जो समय (वि० सं० १३१० ) पट्टावली में दिया है यदि वह ठीक हो तो, ऐसी हालत में, यह कहना होगा कि यह टीका उन्होंने इस पट्टारोहणसे पहले धारामें किसी दूसरे आचार्यके पद पर रहते हुए बनाई है, और इसकी रचना या तो वि० सं० १२९२ के बाद और १३०० से पहले, जयसिंह द्वितीयके राज्य में हुई है और या उससे भी कुछ पहले जयसिंहके पिता देवपालदेवके राज्यमें हुई जान पड़ती है, जिसके राज्यका * पता वि० सं० १२७५ से १२९२ तक चलता हैं। पं० आशाधरजीने अपने सागार - धर्मामृतकी टीका वि० सं० १२९६ में बनाकर समाप्त की है, उसमें इस टीकाका कहीं पर भी कोई उल्लेख नहीं है परंतु वि० सं० १३०० में बनी हुई आपकी अनगारधर्मामृतकी टीकाके पिछले भाग में इसका उल्लेख जरूर पाया जाता है । इस पर से यह कहा जा सकता है कि सं० १२९६ से पहले या तो यह टीका
* देखो, ' भारत के प्राचीन राजवंश, ' प्रथम भाग, पृ० १६०,१६१ ।
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