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बनी ही नहीं और या वह पं० आशाधरजीको देखनेको नहीं मिली । अन्यथा, वे इसका उल्लेख अपने सागारधर्मामृतकी टीकामें जरूर करते-कमसे कम इस टीकाकी शासनदेवताओंकी पूजावाली युक्तिको तो अवश्य ही स्थान देते, जिसका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, परन्तु उक्त पूजाके समर्थन में उसे स्थान देना तो दूर रहा, उन्होंने उलटा पहली प्रतिमावाले श्रावकके लिये भी शासन देवताओंकी पूजाका निषेध किया है और साफ लिख दिया है कि वह आपदा
ओंसे आकुलित (बेचैन) होने पर भी कभी उनकी पूजा नहीं करता, किन्तु पंचपरमेष्ठिके चरणोंमें ही एक मात्र दृष्टि रखता है, यथा--
"परमेष्ठिपदैकधीः परमेष्ठिपदेषु अहंदादिपंचगुरुचरणेषु एका धीरन्तदृष्टियस्य । आपदाकुलितोपि दर्शनिकस्तनिवृत्यर्थ शासनदेवतादीन् कदाचिदपि न भजते।" _इसके सम्बंधमें हम सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि शासन देवताओंकी पूजावाली युक्तिका उल्लेख न करना इस बातका कोई नियामक अथवा लाजिमी नतीजा नहीं है कि यह टीका आशाधरजीको उस वक्त देखनेको नहीं मिली थी, क्योंकि बादमें देखनेको मिल जाने पर भी उन्होंने अनगारधर्मामृतकी टीकामें उस युक्तिका कोई उल्लेख नहीं किया; बल्कि नीचे लिखे पद्यकी व्याख्या करते हुए शासन देवताओंको कुदेवोंमें परिगणित करके उन्हें श्रावकोंके द्वार अवन्दनीय ( वन्दना किये जानेके अयोग्य ) ठहराया है
श्रावकेनापि पितरौ गुरू राजाप्यसंयताः।
कुलिंगिनः कुदेवाश्च न वंद्याः सोपि संयतैः ॥ टीका-.........कुलिंगिनस्तापसादयः पार्श्वस्थादयश्च । कुदेवा रुद्रादयः शासनदेवतादयश्च । ......
ऐसी हालतमें यही खयाल होता है कि आशाधरजीने उक्त युक्तिको बिल. कुल ही निःसार तथा पोच और अपने मंतव्यके विरुद्ध समझा है और इसी लिये अपनी किसी भी टीकामें उसे उद्धृत नहीं किया। परंतु फिर भी सागारधर्मामृतकी टीकामें इस टीकाका कुछ भी उल्लेख न होना-कमसे कम मतान्तरको प्रदर्शित करनेके तौर पर ही यह भी न दिखलाया जाना कि प्रभाचन्द्रने, दूसरे आचार्योंके मतसे एक दम भिन्न, इस टीकामें, ११ प्रतिमाओंको सल्लेखनानुछाता धावकके ११ मेद बतलाया है-कुछ संदेह जरूर पैदा करता है। और इस लिये आश्चर्य नहीं जो यह टीका वि० सं० १२९६ से पहले बन ही न पाई हो । अथवा बन जाने और देखनेको मिल जाने पर यह भी हो सकता है कि
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