________________
७९
अखिलकर्मशोधनं इत्यादि कुछ विशेषण भी, अर्थकी दृष्टिसे परस्पर मिलते -जुलते हैं ।
( २ ) मंगलाचरण के बाद दोनों टीकाओंके प्रस्तावनावाक्य इस प्रकार हैंश्री पूज्यपादस्वामी मुमुक्षूणां मोक्षोपायं मोक्षस्वरूपं चोपदर्शयितुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वाणो नामेत्याह । -समाधिशतकटीका । श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह ।
- रत्नकरण्डकटीका । इन दोनों प्रस्तावनावाक्यों में कितनी अधिक समानता है उसे बतलानेकी भी जरूरत नहीं है । वह स्वतः स्पष्ट है ।
(३) समाधिशतककी टीका में उसके प्रथम पद्यका सारांश इस प्रकार दिया हैअत्र पूर्वार्द्धन मोक्षोपायः उत्तरार्द्धेन च मोक्षस्वरूपमुपदर्शितम् ।
और रत्नकरण्डककी टीका में प्रथम पद्यका सारांश इस प्रकार दिया हुआ है— अत्र पूर्वार्द्धन भगवतः सर्वज्ञतोपायः उत्तरार्द्धेन च सर्वज्ञतोक्ता ।
इससे स्पष्ट है कि दोनों टीकाओंके कथनका ढंग और शब्दविन्यास एक जैसा है ।
( ४ ) दोनों टीकाओंमें ' परमेष्ठी ' पदकी जो व्याख्या की गई है वह एक ही है । यथा
परमे इन्द्रादिवंद्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी स्थानशीलः ।
परमे इन्द्रादीनां वंद्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी ।
Jain Education International
-समाधिशतकटीका ।
( ५ ) दोनों टीकाओंके अन्तिम पद्य इस प्रकार हैं— येनात्मा बहिरन्तरुत्तमभिदा त्रेधा विवृत्योदितो मोक्षोऽनन्त चतुष्टया मलवपुः सद्ध्यानतः कीर्तितः । जीयात्सोऽत्र जिन: समस्त विषयः श्रीपादपूज्योऽमलो भव्यानन्दकरः समाधिशतकः श्रीमत्प्रभेन्दुः प्रभुः ॥
For Personal & Private Use Only
— रत्नकरण्डकटीका |
-समाधिशतकटीका ।
www.jainelibrary.org