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इस पिछली बातकी संभावना अधिक पाई जाती है। धारामें बराबर उस समय विद्वान् आचार्योंका सद्भाव रहा है। पं० आशाधरजीने धारामें रहते हुए, धर-सेनाचार्यके शिष्य महावीराचार्यसे जैनेन्द्रव्याकरणादि ग्रंथोंको पढ़ा था। आश्चर्य नहीं जो ये महावीराचार्य ही इन धारानिवासी प्रभाचंद्रके गुरु हों अथवा वह गुरुत्व उनके किसी शिष्यको प्राप्त हो । अस्तु । हमारी रायमें यह टीका १५ ३ नम्बरके उन प्रभाचंद्राचार्यकी बनाई हुई मालूम होती है जिन्हें 'गुर्वावली में पूज्यपादीय शास्त्रकी व्याख्या करनेवाले लिखा है। श्रीपूज्यपाद आचार्यके 'समाधितंत्र' ग्रंथपर, जिसे 'समाधिशतक' भी कहते हैं, प्रभाचंद्राचार्यकी एक टीका मिलती है और वह मराठी अनुवाद सहित सन् १९१२ में प्रकाशित भी हो चुकी है। उस टोकाके साथ जब इस टीकाका मीलान किया जाता है तब दोनोंमें बहुत बड़ा सादृश्य पाया जाता है। दोनोंकी प्रतिपादनशैली, कथन करनेका ढंग और साहित्यकी दशा एक जैसी मालूम होती है। वह भी इस टीकाकी तरह प्रायः शब्दानुवादको ही लिये हुए है। दोनोंके आदि अन्तमें एक एक ही पद्य है और उनकी लेखनपद्धति भी अपने अपने प्रतिपाद्य विषयकी दृष्टिसे समान पाई जाती है । नीचे इस सादृश्यका अनुभव करनेके लिये कुछ उदाहरण नमूनेके तौर पर दिये जाते हैं
(१) दोनों टीकाओंके आदि मंगलाचरणके पद्य इस प्रकार हैंसिद्धं जिनेन्द्रमलमप्रतिमप्रबोधं निर्वाणमार्गममलं विबुधेन्द्रवंद्यम् । संसारसागरसमुत्तरणप्रपोतं वक्ष्ये समाधिशतकं प्रणिपत्य वीरं ॥१॥
-समाधिशतकटीका। समन्तभद्रं निखिलात्मबोधनं जिनं प्रणम्याखिलकर्मशोधनम् । निबन्धनं रस्नकरण्डकं परं करोमि भव्यप्रतिबोधनाकरम् ॥ १ ॥
-रत्नकरण्डकटीका । ये दोनों पद्य इष्ट देवको नमस्कारपूर्वक टीका करनेकी प्रतिज्ञाको लिये हुए हैं. दोनोंमें प्रकारान्तरसे ग्रंथकर्ता * और मूल ग्रंथको भी स्तुतिका विषय बनाया गया है और उनके अप्रतिमप्रबोधं-निखिलास्मबोधनं तथा निर्वाणमार्ग
*. पहले पद्यमें 'जिनेन्द्र' पदके द्वारा ग्रंथकर्ताका नामोल्लेख किया गया है। क्योंकि पूज्यपादका 'जिनेन्द्र' अथवा 'जिनेन्द्रबुद्धि' भी नामान्तर है। और “विबुधेन्द्रवंधं' पद पूज्यपादनगमका भी द्योतक है।
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