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स्वामी समन्तभद्र ।
तथा कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, इसका अच्छा अनुभव वे ही विद्वान् कर सकते हैं जिन्हें ऐतिहासिक क्षेत्रमें कुछ अर्से तक काम करनेका अवसर मिला हो । अस्तु । यथेष्ट साधनसामग्री के बिना ही, इन सब अथवा इसी प्रकारकी और भी बहुतसी दिक्कतों, उलझनों और कठिनाइयोंमेंसे गुजरते हुए, हमने आजतक स्वामी समन्तभद्रके विषयमें जो कुछ अनुसंधान किया है- जो कुछ उनकी कृतियों, दूसरे विद्वानोंके ग्रंथोंमें उनके विषयके उल्लेखवाक्यों और शिलालेखों आदि परसे हम मालूम कर सके हैं - अथवा जिसका हमें अनुभव हुआ है उस सब इतिवृत्तको अब संकलित करके, और अधिक साधनसामग्री के मिलने की प्रतीक्षा में न रहकर, प्रकाशित कर देना ही उचित मालूम होता है, और इस लिये नीचे उसीका प्रयत्न किया जाता है:
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पितृकुल और गुरुकुल |
स्वामी समन्तभद्र के बाल्यकालका अथवा उनके गृहस्थ जीवनका प्रायः कुछ भी पता नहीं चलता, और न यह मालूम होता है कि उनके मातापिताका क्या नाम था । हाँ, आपके ' आप्तमीमांसा' ग्रंथकी एक प्राचीन प्रति ताड़पत्रों पर लिखी हुई श्रवणबेलगोलके दौर्बलि जिनदास शास्त्रीके भंडार में पाई जाती है । उसके अन्त में लिखा है
" इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामिसमन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम् । ”
इससे मालूम होता है कि समन्तभद्र क्षत्रियवंश में उत्पन्न हुए थे और एक राजपुत्र थे आपके पिता फणिमंडलान्तर्गत 'उरगपुर' के
१ देखो जैनहितैषी भाग ११, अंक ७–८, पृष्ठ ४८० । आराके जैनसिद्धान्तभवन में भी, ताड़पत्रों पर, प्रायः ऐसे ही लेखवाली प्रति मौजूद है ।
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