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धाराके इलाके में रहते हुए धाराके भट्टारकोंसे उपकृत और प्रभावित होनेके कारण उनकी इस तात्कालिक कृतिको किसी गलत बातको लेकर उसका प्रत्यक्ष रूपसे विरोध करना आशाधरजीने अपने शिष्टाचार तथा नीतिके विरुद्ध समझा हो। परंतु कुछ भी सही, १२९६ से पहले ही या पोछे दोनों ही हालतोंमें यह टीका पं० आशाधरजीके समयकी बनी हुई प्रतीत होती है ।
हाँ यदि 'समाधिशतक' की उक्त टीका रत्नकीर्तिके पट्टशिष्य या धारा. निवासी प्रभाचंद्रकी बनाई हुई न हो, अथवा रत्नकीर्तिके पट्टशिष्य प्रभाचंद्रके सम्बंधमें गुर्वावली और पट्टावलीका यह उल्लेख ही गलत हो कि उन्होंने पूज्यपादीय शास्त्रकी व्याख्या करके प्रसिद्धि प्राप्त की थी, तो फिर यह टीका 'नय. कीर्ति'के शिष्य ११ ३ नम्बरके प्रभाचंद्र, अथवा 'श्रुतमुनि'के विद्यागुरु १३ वें नम्बरके प्रभाचंद्र की बनाई हुई होनी चाहिये । दोनोंका समय भी प्रायःएक ही है। अस्तु, यह टीका इन चारों प्रभाचंद्रमेंसे चाहे जिसकी बनाई हुई हो परन्तु जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है, इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि यह विक्रमकी १३ वीं शताब्दीसे पहलेकी बनी हुई नहीं है। ___ यहाँपर इतना और भी प्रकट कर देना उचित मालूम होता है कि डाक्टर भाण्डारकर तथा पिटर्सन साहबकी बाबत यह कहा जाता है कि उन्होंने इस टीकाको वि० सं० १३१६ में होनेवाले प्रभाचंद्रकी बनाई हुई लिखा है। यद्यपि, इन विद्वानों की वे रिपोर्ट हमारे सामने नहीं हैं और न यही मालूम हो सका कि इन्होंने उक्त प्रभाचंद्रको कौनसे आचार्य का शिष्य लिखा है जिससे विशेष विचारको अवसर मिलता; फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि उनके इस लिखनेका यह आशय कदापि नहीं हो सकता कि उन्होंने इस टीकाको वि० सं० १३१६ की बनी हुई लिखा है अथवा इसके द्वारा यह सूचित किया है कि वि० सं० १३१६ से पहलके वर्षों में इन प्रभाचंद्रका अस्तिव था ही नहीं। हो सकता है कि इन प्रभाचंद्रके बनाये हुए किसी ग्रंथकी प्रशस्तिमें उसके रचे जानेका स्पष्ट समय सं० १३१६ दिया हो और उसीपरसे उन्हें १३१६ में होनेवाले प्रभाचंद, ऐसा नाम दिया गया हो । १५ वें नम्बरके प्रभाचंद्र, जिनकी बाबत इस टीकाके को होनेका विशेष अनुमान किया गया है, वि० सं० १३१६ में मौजूद थे ही। १२ वें और १३ ३ नम्बरके प्रभाचंद्रकी भी उस समय मौजूद होनेकी संभावना पाई जाती है। ऐसी हालतमें यहाँ जो कुछ निर्णय किया गया है उसमें उनके उस लिखनेसे कोई भेद नहीं पड़ता । अस्तु ।
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