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अभीतक उपलब्ध हुई है जो इस ग्रंथके साथ प्रकाशित हो रही है। इसी टीकाकी बाबत, पिछले पृष्ठोंमें, हम बराबर कुछ न कुछ उल्लेख करते आये हैं और उसपरसे टीकाका कितना ही परिचय मिल जाता है। हमारी इच्छा थी कि इस टीकापर एक विस्तृत आलोचना लिख दी जाती परंतु समयके अभाव और लेखके अधिक बढ़ जानेके कारण वह कार्यमें परिणत नहीं हो सकी । यहाँ पर टीकाके संबंधमें, सिर्फ इतना ही निवेदन कर देना उचित मालूम होता है कि यह टीका प्रायः साधारण है-ग्रंथके मर्मको अच्छी तरहसे उद्घाटन करनेके लिये पर्याप्त नहीं है और न इसमें गृहस्थधर्मके तत्त्वोंका कोई अच्छा विवेचन ही पाया जाता है—सामान्य रूपसे ग्रंथके प्रायः शब्दानुवादको ही लिये हुए है। कहीं कहीं तो जरूरी पदोंके शब्दानुवादको भी छोड़ दिया है; जैसे 'भयाशास्नेह' नामके पद्यकी टीकामें 'कुदेवागमलिंगिनां' पदका कोई अनुवाद अथवा स्पष्टीकरण नहीं दिया गया जिसके देनेकी खास जरूरत थी, और कितने ही पदोंमें आए हुए 'आदि' शब्दकी कोई व्याख्या नहीं की गई जिससे यह मालूम होता कि वहाँ उससे क्या कुछ अभिप्रेत है । इसके सिवाय, टीकामें ये तीन खास विशेषताएँ पाई जाती हैं
प्रथम तो यह कि, इसमें मूल ग्रंथको सातकी जगह पाँच परिच्छेदोंमें विभाजित किया है-अर्थात्, ‘गुणवत' और 'प्रतिमा' वाले अधिकारों को अलग अलग परिच्छेदोंमें न रखकर उन्हें क्रमशः 'अणुव्रत ' और ' सल्लेखना' नामके परिच्छेदोंमें शामिल कर दिया है। मालूम नहीं, यह लेखकोंकी कृपाका फल है अथवा टीकाकारका ही ऐसा विधान है। जहाँतक हम समझते हैं, विषय-विभागकी दृष्टिसे, ग्रंथके सात परिच्छेद ही ठीक मालूम होते हैं और वे ही ग्रंथकी मूल प्रतियोंमें पाये जाते हैं * । यदि सात परिच्छेद नहीं रखने थे तो फिर चार छेप्पु' ( रत्नकरण्डक ) ग्रंथ इस ग्रंथको सामने रखकर ही बनाया गया मालम होता है और कुछ अपवादोंको छोड़कर इसीका ही प्रायःभावानुवाद अथवा सारांश जान पड़ता है। ( देखो, अंग्रेजी जैनगजटमें प्रकाशित उसका अंग्रेजी अनुवाद।), परंतु वह कब बना और किसने बनाया, इसका कोई पता नहीं चलता और न उसे तामिल भाषाकी टीका ही कह सकते हैं । हिन्दीमें पं० सदासुखजीका भाष्य ( स्वतंत्र व्याख्यान ) प्रसिद्ध ही है। ___ * देखो 'सनातनजैनग्रंथमाला' के प्रथम गुच्छकमें प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचार, जिसे निर्णयसागरप्रेस बम्बईने सन् १९०५ में प्रकाशित किक
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