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होती, ' वह सब कथन मूल ग्रंथ तथा समीचीन आगमके विरुद्ध है और युक्तियुक्त नहीं है ।
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प्रमेयकमलमार्तडादिक के रचयिता जैसे प्रौढ विद्वानोंसे वे ऐसे कथनकी अथवा इस प्रकारके निर्बल युक्तिप्रयोगकी आशा नहीं रखते और इसी लिये उनका उपयुक्त खयाल है । इसमें संदेह नहीं कि टीकाका यह कथन बहुत कुछ आपत्तिके योग्य है और उसमें शासन देवताओंका पूजन करनेपर फल प्राप्तिकी जो बात कही गई है वह जैन सिद्धान्तों की तात्त्विक दृष्टिसे निरी गिरी हुई है और बिलकुल ही बच्चों को बहकाने जैसी बात है । क्योंकि, चक्रवर्ति जिस प्रकार रागद्वेषसे मलिन होता हैं, परिमित परिवार रखता है, अपने परिवार के आदरसत्कारको -देखकर प्रसन्न होता है, परिवार के लोगोंकी बात सुनता है— उनकी सिफारिश मानता है - और इच्छापूर्वक किसीका निग्रह - अनुग्रह करता है उसी प्रकारकी स्थिति अर्हन्तादिक इष्ट देवताओंकी नहीं है । उनमें चक्रवर्तिवाली बातें घटित नहीं होतीं - वे रागद्वेषसे रहित हैं, किसीकी पूजा या अवज्ञापर उनके आत्मामें प्रसन्नता या अप्रसन्नताका भाव जाग्रत नहीं होता, शासन देवता उनके साथमें कुटुम्बके तौर पर सम्बद्ध नहीं हैं, वे शासन देवताओं की कोई सिफारिश नहीं सुनते और न स्वयं ही इच्छापूर्वक किसीका निग्रह अथवा अनुग्रह किया करते हैं— उनके द्वारा फलप्राप्तिका रहस्य * ही दूसरा है । इनके सिवाय शासनदेवता अवती होने के कारण, धार्मिक दृष्टिसे, व्रतियों ( श्रावकों ) द्वारा पूजे जानेकी क्षमता भी नहीं रखते; धर्मका पक्ष होनेसे उन्हें स्वयं ही श्रावकोंकीधर्म में अपनेसे ऊँचे पदपर प्रतिष्ठित व्यक्तियोंकी - पूजा करनी चाहिये, न कि श्रावकों से अपनी पूजा करानी चाहिये । रही लौकिक वरप्राप्तिकी दृष्टिसे पूजा, उसे टीकाकर भी दूषित ठहराते ही हैं; फिर किस दृष्टिसे उनका पूजन किया जाय, यह कुछ समझ में नहीं आता । यदि साधर्मीपनेकी दृष्टिसे अथवा जैनधर्मका पक्ष रखने की वजह से ही उन्हें पूजा जाय तो सभी जैनी पूज्य ठहरते हैं; शासन देवताओं की पूजा में तब कोई विशेषता नहीं रहती । और यह बात तो बनती ही नहीं कि कोई शासनदेवता कर्मसिद्धान्तको उलट देने या कर्मसिद्धान्त के अनु
* इस फलप्राप्ति के रहस्यका कुछ अनुभव प्राप्त करनेके लिये लेखकके लिखे हुए 'उपासनातत्त्व ' को देखना चाहिये, जो जैन ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित हो चुका है ।
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