________________
___तथाप्तमीमांसायां व्यासतः समर्थितत्वात् ।' 'यथा चाभावैकान्तादिपक्षा न्यक्षेण प्रतिक्षिप्ता देवागमाप्तमीमांसायां तथैह प्रतिपत्तव्या इत्यलमिह विस्तरेण ।'
-युक्त्यनुशासनटीको । 'इत्यादिरूपेण कृष्णादिषड्लेश्यालक्षणं गोमदृशास्त्रादौ विस्तरेण भणितमास्ते तदन नोच्यते ।'
-पंचास्तिकायटीका जयसेनीया । ऐसी हालतमें, विना किसी प्रबल प्रमाणकी उपलब्धिके, उक्त वाक्य मात्रसे यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि यह टीका और उक्त दोनों ग्रंथ एक ही व्यक्तिके बनाये हुए हैं।
इस टीकामें एक स्थानपर-वरोपलिप्सया' पद्यके नीचे ये वाक्य पाये जाते हैं
"नन्वेवं श्रावकादीनां शासनदेवतापूजाविधानादिकं सम्यग्दर्शनम्लानताहेतुः प्राप्नोतीति चेत् एवमेव यदि वरोपलिप्सया कुर्यात् । यदा तु शासनसक्तदेवतास्वेन तासां तत्करोति तदा न म्लानताहेतुः । तत् कुर्वतश्च दर्शनपक्षपाताद्वरमयाचितमपि ताः प्रयच्छन्त्येव । तदकरणे चेष्टदेवताविशेषात् फलप्राप्तिनिर्वि.. नतो झटिति न सिद्धयति । न हि चक्रवर्तिपरिवारापूजने सेवकानां चक्रवर्तिनः सकाशात् तथा फलप्राप्तिदृष्टा ।"
टीकाके इस अंशको लेकर दूसरे कुछ विद्वानोंका खयाल है कि यह टीका उन प्रभाचंद्राचार्यको बनाई हुई नहीं हो सकती जो प्रमेयकमलमार्तण्डादिक ग्रंथोंके प्रणेता हैं। उनकी रायमें, इन वाक्योंद्वारा जो यह प्रतिपादन किया गया है कि 'रागद्वेषसे मलिन शासन देवताओंका पूजनविधानादिक उस हालतमें सम्यग्दर्शनकी मलिनताका-उसमें दोष उत्पन्न करनेका-हेतु नहीं होता जब कि वह विना किसी वरकी इच्छाके केवल उन्हें शासनभक्त देवता समझकर किया जाता है;' और साथ ही, यह बतलाया गया है कि वे शासनदेवता, दर्शनमें पक्षपात रखने-जैनधर्मके पक्षपाती होने के कारण उन पूजनादिक करनेवाले श्रावकोंको विना माँगे भी वर देते ही हैं, और यदि उनका . पूजनादिक नहीं किया जाता किन्तु इष्ट देवताविशेष (अर्हन्तादिक ) का ही पूजनादिक किया जाता है तो उस पूजनादिकसे इष्टदेवताविशेषके द्वारा शीघ्र ही निर्विघ्न रूपसे किसी फलकी सिद्धि उसी प्रकार नहीं हो पाती जिस प्रकार कि चक्रवर्तीके परिवारका पूजन न करने पर चक्रवर्तिके पाससे सेवकोंको फलकी प्राप्ति नहीं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org