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" श्रद्धा तुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमाशक्तिः ।
यस्यैते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंसन्ति ॥" - " इत्येतैः सप्तभिर्गुणैः समाहितेन तु दात्रा दानं दातव्यं ।" ..
यह पद्य, जिसमें दातारके सप्तगुणोंका उल्लेख है, और जिसके अनन्तर ही उक्त टीकावाक्यद्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि 'इन सप्त गुणोंसे युक्त दातारके द्वारा दान दिया जाना चाहिये,' यशस्तिलक ग्रंथके ४३ वें 'कल्प' का पद्य है। यशस्तिलक ग्रंथ, जिसे 'यशोधरमहाराजचरित' भी कहते हैं सोमदेवसूरिका बनाया हुआ है और शक सं० ८८१ ( वि० सं० १०१६ ) में बनकर समाप्त हुआ है । इससे यह टीका ' यशस्तिलक ' से बादकी अथवा यों कहिये कि प्रमेयकमलमार्तडसे प्रायः अढाईसौ वर्षसे भी पीछकी बनी हुई है, ऐसा कहने में कोई संकोच नहीं होता।
२. 'दुःश्रुति' अनर्थदण्डका स्वरूप प्रतिपादन करनेवाले 'आरंभसंग' नामक पद्यको टीकाका एक अंश इस प्रकार है___ "आरंभश्च कृष्यादिः संगश्च परिग्रहः तयोः प्रतिपादनं वार्ता नीती विधीयते 'कृषिः पशुपाल्यं वाणिज्यं च वार्ता' इत्यभिधानात् ।
इसमें 'वार्ता'का जो लक्षण ग्रंथान्तरसे उद्धृत किया है और जिसके उद्धरणकी बातको ' इत्याभिधानात् ' पदके द्वारा सूचित भी किया है वह ' नीतिवाक्यामृत' ग्रंथके 'वार्तासमुद्देश' का प्रथम सूत्र है । ' नीती विधीयते' इस वाक्यसे भी नीतिग्रंथको सूचित करनेकी ध्वनि निकलती है । यह — नीतिवाक्यामृत ' उन्हीं सोमदेवाचार्यका बनाया हुआ है जो यशस्तिलकके कर्ता हैं
और इसकी रचना यशस्तिलक ग्रंथसे भी पीछे हुई है। क्योंकि इसकी प्रशस्तिमें 'यशोधरमहाराजचरित' के रचे जानेका उल्लेख है। इससे यह टीका 'नीतिवाक्यामृत' से भी बादकी बनी हुई है।
१ इसके स्थानपर 'सत्यं ' पाठ गलतीसे मुद्रित हो गया मालूम होता है; अन्यथा इन गुणोंमें सत्यगुणका समावेश नहीं है।
२ 'यत्रैते' ऐसा भी पाठान्तर देखा जाता है । ३ 'पशुपालनं ' यह पाठान्तर है और यही ठीक मालूम होता है। ४ ' वणिज्या ' यह पाठान्तर है और यह भी ठीक जान पड़ता है।
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