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नन्दि आचार्य प्रायः वि० सं० १०७० के बाद हुए हैं, इस कहनेमें कुछ भी दिक्कत नहीं होती। परंतु कितने समय बाद हुए हैं, यह बात अभी नहीं कही जा सकती। हाँ, इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे पं० आशाधरजीसे पहले हुए हैं; क्योंकि पं० आशाधरजीने अपने 'सागरधर्मामृत' की स्वोपज्ञ टीकामें, जो वि. सं० १२९६ में बन कर समाप्त हुई है, वसुनन्दि श्रावकाचारकी 'पंचुंबरसहियांई' नामकी गाथाका उल्लेख करते हुए लिखा है- . _ 'इति वसुनन्दिसैद्धान्तिमतेन दर्शनप्रतिमायां प्रतिपन्नस्तस्येदं । तन्मतेनैव व्रतप्रतिमा बिभ्रतो ब्रह्माणुव्रतं स्यात्तद्यथा-पव्वेसु इस्थिसेवा......।'
इसके सिवाय, 'अनगारधर्मामृत' की टीकामें, जो वि० सं० १३०० में बनकर समाप्त हुई है, वसुनन्दिकी आचारवृत्तिका भी आशाधरजीने निम्न प्रकारसे उल्लेख किया है
'एतच्च भगवद्वसुनन्दिसैद्धान्तदेवपादैराचारटीकायां 'दुओ णदं जहाजादं" इत्यादिसत्रे व्याख्यातं दृष्टव्यं ।'
ऐसी हालतमें वसुनन्दि आचार्य वि० सं० १०७० और १२९६ के मध्यवर्ती किसी समयके-विक्रमकी प्रायः १२ वीं या १३ वीं शताब्दीके-विद्वान् होने चाहिये । आपने अपने श्रावकाचारमें जो गुरुपरम्परा दी है उससे मालूम होता है कि आप ' नेमिचंद्र' के शिष्य और 'नयनन्दी के प्रशिष्य थे, और नयनंदी 'श्रीनंदी के शिष्य थे। श्रीनंदीको दिये हुए कुछ दानोंका उल्लेख गुडिगेरिके टूटे हुए एक कनडी शिलालेख* में पाया जाता है, जो शक संवत् ९९८ का लिखा हुआ है, और इससे मालूम होता है कि 'श्रीनंदी' वि० सं० ११३३ में भी मौजूद थे । ऐसी हालतमें आपके प्रशिष्य ( नेमिचंद ) के शिष्य · वसुनन्दी'का समय विक्रमकी १२ वीं शताब्दीका प्रायः अन्तिम भाग और संभवतः १३ वीं शताब्दीका प्रारंभिक भाग भी अनुमान किया जाता है और इस लिये यह टीका जिसमें वसुनन्दीके वाक्यका उल्लेख पाया जाता है विक्रमकी १३ वीं शताब्दीकी-प्रमेयकमलमार्तंडसे प्रायः चारसौ वर्ष पीछेकी-बनी हुई जान पड़ती है और कदापि प्रमेयकमलमार्तडादिके कर्ता प्रभाचंदाचार्यकी बनाई हुई नहीं हो सकती।
___* देखो, इंडियन ऐंटिक्वेरी, जिल्द १८, पृष्ठ ३८,Ind. Ant., XVIII, P. 38
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