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द्वितीयके समकालीन ही होने चाहिये । इस विषयका और विशेष निर्णय दोनों टिप्पणोंके अच्छे अध्ययन पर अवलम्बित है।
(१३) वे प्रभाचंद्र जो प्राकृत 'भावसंग्रह ' (भावत्रिभंगी ) के कर्ता 'श्रुतमुनि ' के शास्त्रगुरु ( विद्यागुरु ) थे और उक्त भावसंग्रहकी प्रशस्तिमें * जिन्हें ' सारत्रयनिपुण ' आदि विशेषणोंके साथ स्मरण किया है । ' सारत्रयनिपुण ' विशेषणसे ऐसा मालूम होता है कि आप समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय ग्रंथोंके अच्छे जानकार थे, और इसलिये इन ग्रंथोंपर प्रभाचंद्रके नामसे जिन टीकाओंका उल्लेख 'दि. जैन ग्रंथकर्ता और उनके ग्रंथ x नामकी सूची में, पाया जाता है वे शायद इन्हीं प्रभाचंदकी बनाई हुई हों । ये प्रभाचंद्र विक्रमकी १३ वीं और १४ वीं शताब्दीके विद्वान् थे; क्योंकि अभयचंद्र सैद्धान्तकके शिष्य बालचंद्र मुनिने, जो कि उक्त श्रुतमुनिके अणुव्रतगुरु होनेसे आपके प्रायः समकालीन थे, शक सं० ११९५ (वि० सं० १३३०) में 'द्रव्यसंग्रह ' सूत्रपर एक टीका लिखी है, जिसका उल्लेख 'कर्णाटक-कविचरित' अथवा ' कर्णाटक जैनकवि ' में मिलता है । उक्त ग्रंथसूचीमें वि० सं० १३१६ का जो उल्लेख किया है वह भी आपके समयके अनुकूल पड़ता है ।।
(१४ ) वे प्रभाचंद्र जिनकी बाबत 'विद्वज्जनबोधक' में ऐसा उल्लेख मिलता है कि वे संवत् १३०५ में भ्रष्ट होकर दिल्लीमें रक्ताम्बर हो गये थेबादशाहकी आज्ञासे उन्होंने रक्त वस्त्र धारण कर लिये थे-और शाही मदद पाकर जिन्होंने उस समय अनेक प्रकारके मिथ्यात्व तथा कुमार्गका प्रचार किया था। इनका समय भी विक्रमकी १३ वी १४ वीं शताब्दी समझना चाहिये। इनके गुरुका नाम मालूम न होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे इससे पहले अथवा पीछेके उल्लखित किसी प्रभाचंद्रसे भिन्न थे या अभिन्न । - एक रक्ताम्बर प्रभाचंद्र भगवती आराधनाके टीकाकार भी हो गये हैं जिनका उल्लेख उक्त ग्रंथसूचीमें मिलता है। मालूम नहीं वे ये ही थे अथवा इनसे भिन्न ।
(१५) वे प्रभाचंद्र जिन्हें, जैनसिद्धान्तभास्करकी ४ थी किरणमें प्रका
. • * यह प्रशस्ति माणिकचंदग्रंथमालामें प्रकाशित 'भावसंग्रहादि' ग्रंथकी भूमिकामें प्रकाशित हुई है। . x देखो जैनहितैषी भाग ६ ठा, अंक ५-६ और ९-१०।
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