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स्थानके शिलालेख न० ४२ में पाया जाता है, और इस लिये ये प्रभाचंद्र विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके प्रायः पूर्वार्द्ध के विद्वान् थे।
(१२) वे प्रभाचंद्र, जिन्होंने जयसिंहके राज्यमें 'पुष्पदन्त 'के प्राकृत 'उत्तरपुराण' पर एक टिप्पण लिखा है और जो धारानगरीके निवासी थे। इस टिप्पणकी प्रशस्ति* इस प्रकार है
"नित्यं तत्र तव प्रसन्नमनसा यत्पुण्यमत्यद्भुतं यातन्तेन समस्तवस्तुविषयं चेतश्चमरकारकः । व्याख्यातं हि तदा पुराणममलं स्वस्पष्टमिष्टाक्षरैः भूयाञ्चेतसि धीमतामतितरां चंद्रार्कतारावधिः ॥ १॥ तत्वाधारमहापुराणगमनयोती जनानंदनः सर्वप्राणिमनःप्रभेदपटुताप्रस्पष्टवाक्यैः करैः । भव्याब्जप्रतिबोधकः समुदितो भूभृत्प्रभाचंद्रतः
जीयाट्टिपणकः प्रचंडतरणिः सर्वार्थमग्रद्युतिः ॥२॥ श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जिता.. मलपुण्यनिराकृताखिलमलकलंकेन श्रीप्रभाचंद्रपंडितेन महापुराणटिप्पणके शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति ।" - जान पड़ता है यह जयसिंह राजा, जिसके राज्यकालमें उक्त टिप्पण लिखा गया है. 'देवपालदेव' का उत्तराधिकारी था और इसे 'जैतुगिदेव' भी कहते थे। वि० सं० १२९२ और १२९६ के मध्यवर्ती किसी समयमें इसने अपने पिताका राज्यासन ग्रहण किया था और इसका राज्यकाल वि० सं० १३१२ या १३१३ तक पाया जाता है। प्रसिद्ध विद्वान् पं० आशाधरजीने इसी राजाके राज्यकालमें 'सागारधर्मामृत' और 'अनगारधर्मामृत' की टीकाएँ लिखी हैं।
परंतु ऊपरकी प्रशस्तिमें प्रभाचंद्रने 'धारानिवासी' के अतिरिक्त अपने लिये : जिन दो विशेषणोंका प्रयोग किया है वे वही हैं जो नंबर ९ में उधृत की हुई प्रमेयकमलमातेंडकी टिप्पणवाली अन्तिम गद्यपंक्तियोंमें पाये जाते हैं और इससे दोनों टिप्पणकार एक ही व्यक्ति थे ऐसा कहा जा सकता है। यदि यह
* यह प्रशस्ति . पं० पन्नालालजी बाकलीवालने जयपुर पाटोदी मंदिर के । भंडारकी २२३ नंबरकी प्रति परसे उतारी थी, ऐसा हमें उनके एक पत्र परसे मालूम हुआ, जो ४ जून १९२३ का लिखा हुआ है।
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