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ये प्रभाचंद्र 'प्रमेयकमलमार्तड'के टीका-टिप्पणकार जान पड़ते हैं, इसीसे उक्त पद्य तथा गय पंक्तियाँ ग्रंथकी सभी प्रतियों में नहीं पाई जाती * । मुद्रित प्रतिमें, प्रथम परिच्छेदके अन्तमंगलके बाद जो सात पंक्तियाँ मूल रूपसे छप गई हैं वे साफ तौर पर उक्त मंगलपद्यकी टीका ही हैं और ग्रंथकी टीकाटिप्पणीका ही एक अंग होनेको सूचित करती हैं। इसके सिवाय मुद्रित प्रतिमें जो फुटनोट लगे हुए हैं वे सब भी प्रायः उसी टीका-टिप्पणीपरसे लिये गये
_यदि इन प्रभाचंदके गुरु 'पद्मनंदिसैद्धान्त' और ८ वें नंबरवाले प्रभाचंद्रके गुरु 'अविद्धकर्ण पद्मनंदिसैद्धान्तिक' दोनों एक ही व्यक्ति हों तो ये दोनों प्रभाचंद्र भी एक ही व्यक्ति हो सकते हैं; और यदि ये प्रभाचंद्र 'चतुमुखदेव ' के भी शिष्य हों तो ७ वें नंबरवाले प्रभाचंद्र भी इनके साथ एक ही • व्यक्ति हो सकते हैं।
(१०) वे प्रभाचंद्र जो मेघचंद्रविद्यदेवके प्रधान शिष्य तथा विष्णुवर्धन राजाकी पट्टराणी 'शांतलदेवी के गुरु थे, और शक सं० १०६८ (वि. सं० १२०३ ) में जिनके स्वगारोहणका उल्लेख श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं. ५० में पाया जाता है । इस स्थानके और भी कितने ही शिलालेखोंमें आपका उल्लेख मिलता है। आपके गुरु मेघचंद्रका देवलोक शक सं० १०३७ में हुआ था, ऐसा ४८ वें शिलालेखसे पाया जाता है।
(११) वे प्रभाचंद्र जिन्हें श्रवणबेल्गोलके शक सं० १११८ के लिखे हुए, शिलालेख नं० १३० में महामंडलाचार्य 'नयकीर्ति'का शिष्य लिखा है । नयकीर्तिका देहान्त शक सं० १०९९ (वि० सं० १२३४ ) में हो चुका था, ऐसा उक्त __ * पूना के 'भाण्डारकर इन्स्टिटयूट ' में इस ग्रंथकी जो दो प्रतियाँ देवनागरी लिपिमें मौजूद हैं उनमें से किसीमें भी उक्त गद्य पंक्तियाँ नहीं हैं और ८३६ नंबरकी प्रतिमें, जो विक्रम सं. १४८९ की लिखी हुई पुरानी प्रतिपरसे नकल की गई है, उक्त पद्य भी नहीं है, ऐसा पं० नाथूरामजी प्रेमी स्वयं उन प्रतियोंको देखकर सूचित करते हैं।
+ ग्रंथके संपादक पं० वंशीधरजी शास्त्रीने, इस बातको स्वीकार करते हुए सुहृदर पं० नाथूरामजी पर प्रकट किया है कि जिस प्रतिपरसे यह ग्रंथ छपा हैं -वह विस्तृत टिप्पणसहित है; और टिप्पणी जो छापी गई है वह वही है उनकी निजकी नहीं है।
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