________________
होने चाहिये थे। गुणव्रतोंके अधिकारको तो, ' एवं पंचप्रकारमणुव्रतं प्रतिपायेदानी त्रिःप्रकारं गुणवतं प्रतिपादयवाह' इस वाक्यके साथ, अणुव्रत-परिच्छेदमें शामिल कर देना परंतु शिक्षाव्रतोंके कथनको शामिल न करना क्या अर्थ रखता है, यह कुछ समझमें नहीं आता । इसीसे टीकाकी यह विशेषता हमें आपत्तिके योग्य जान पड़ती है। __ दूसरी विशेषता यह कि, इसमें दृष्टान्तोंवाले छहों पद्योंको उदाहृत किया हैअर्थात् , उनकी तेईस कथाएं दी हैं। ये कथाएँ कितनी साधारण, श्रीहीन, निष्प्राण, तथा आपत्तिके योग्य हैं और उनमें क्या कुछ त्रुटियाँ पाई जाती हैं, इस विषयकी कुछ सूचनाएँ पिछले पृष्ठोंमें, 'संदिग्धपद्य' शीर्षकके नीचे, सातवीं आपत्तिका विचार करते हुए, दी जा चुकी हैं । वास्तवमें इन कथा
ओंकी त्रुटियों को प्रदर्शित करनेके लिये एक अच्छा खासा निबंध लिखा जा सकता है, जिसकी यहाँ पर उपेक्षा की जाती है।
तीसरी विशेषता यह है कि, इस टीकामें श्रावकके ग्यारह पदोंको-प्रतिमाओं, श्रेणियों अथवा गुणस्थानोंको-सल्लेखनानुष्ठाता (समाधिमरण करनेवाले ) श्रावकके ग्यारह भेद बतलाया है अर्थात् , यह प्रतिपादन किया है कि जो श्रावक समाधिमरण करते हैं-सल्लेखनाव्रतका अनुष्ठान करते हैं-उन्हींके ये ग्यारह भेद हैं। यथा__“ साम्प्रतं योऽसौ सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकस्तस्य कतिप्रतिमा भवन्तीत्याशंक्याह
श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु ।
स्वगुणाः पूर्वगुणैःसह सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥" इस अवतरणमें 'श्रावकपदानि' नामका उत्तर अंश तो मूल ग्रंथका पद्य है और उससे पहला अंश टीकाकारका वह वाक्य है जिसे उसने उक्त पद्यको देते हुए उसके विषयादिकी सूचना रूपसे दिया है । इस वाक्यमें लिखा है कि 'अब सल्लेखनाका अनुष्ठाता जो श्रावक है उसके कितनी प्रतिमाएँ होती हैं, इस बातकी आशंका करके आचार्य कहते हैं।' परंतु आचार्य महोदयके उक्त पद्यमें न तो वैसी कोई आशंका उठाई गई है और न यही प्रतिपादन किया गया है कि ये ११ था। जैनग्रंथरत्नाकर कार्यालय बम्बई आदि द्वारा प्रकाशित और भी बहुत संस्करणोंमें तथा पुरानी हस्तलिखित प्रतियोंमें वे ही सात परिच्छेद पाये जाते हैं जिनका उल्लेख प्रस्तावनाके शुरूमें 'ग्रंथपरिचय' के नीचे किया गया है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org