________________
विषय पर अच्छा प्रकाश डालनेके लिये समर्थ हो सकें । साथ ही, इस बातकी भी तलाश होनी चाहिये कि १३ वीं शताब्दीसे पहलेके बने हुए कौन कौनसे ग्रंथों में किस रूपसे ये पद्य पाये जाते हैं और इस संस्कृत टीकासे पहलेकी बनी हुई कोई दूसरी टीका भी इस ग्रंथ पर उपलब्ध होती है या नहीं। ऐसा होने पर ये पद्य तथा दूसरे पद्य भी और ज्यादा रोशनीमें आजायँगे
और मामला बहुत कुछ स्पष्ट हो जायगा। ___४-अधिक पद्योंवाली प्रतियोंमें जो पद्य अधिक पाये जाते हैं वे सब क्षेपक हैं। उन पर क्षेपकत्वके प्रायः सभी कारण चारितार्थ होते हैं और ग्रंथमें उनकी "स्थिति बहुत ही आपत्तिके योग्य पाई जाती है । वे बहुत साफ तौर पर दूसरे ग्रंथोंसे टीका टिप्पणीके तौर पर उद्धृत किये हुए और बादको लेखकोंकी कृपासे ग्रंथका अंग बना दिये गये मालूम होते हैं । ऐसे पद्योंको ग्रंथका अंग 'मानना उसे बेढंगा और बेडौल . बना देना है । इस प्रकारको प्रतियाँ पद्योंकी एक संख्याको लिये हुए नहीं हैं और यह बात उनके क्षेपकत्वको और भी ज्यादा पुष्ट करती है।
आशा है, इस जाँचके लिये जो इतना परिश्रम किया गया है और प्रस्तावनाका इतना स्थान रोका गया है वह व्यर्थ न जायगा । विज्ञ पाठक इसके द्वारा अनेक स्थितियों, परिस्थितियों और घटनाओंका अनुभव कर जरूर अच्छा लाभ उठाएँगे, और यथार्थ वस्तुस्थितिको समझनेमें बहुत कुछ कृतकार्य होंगे। साथ ही, जिनवाणी माताके भक्तोंसे भी यह आशा की जाती है कि वे, धर्मग्रंथोंकी ओर अपनी इस हानिकर लापरवाहीको और अधिक दिनों तक जारी न रखकर शीघ्र ही माताकी सच्ची रक्षा, सच्ची खबरगीरी और उसके सच्चे उद्धारका कोई ठोस प्रयत्न करेंगे जिससे प्रत्येक धर्मग्रंथ अपनी अविकल स्थितिमें सर्व साधारणको उपलब्ध हो सके ।
टीका और टीकाकार प्रभाचंद्र । इस ग्रंथपर, रत्नकरण्डक-विषमपदव्याख्यान' नामके एक संस्कृतटिप्पणको छोड़कर जो आराके जैनसिद्धान्तभवनमें मौजूद है और जिसपरसे उसके कर्ताका कोई नामादिक मालूम नहीं होता, संस्कृतकी * सिर्फ यही एक टीका _ * कनड़ी भाषामें भी इस ग्रंथपर कुछ टीकाएँ उपलब्ध हैं परंतु उनके रचयिताओं आदिका कुछ हाल मालूम नहीं हो सका । तामिल भाषाका 'अरुंगल
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org