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कोंकी असावधानी और नासमझीसे वे मूल ग्रंथका ही एक बेढंगा अथवा बेडौल अंग बना दिये गये हैं । सच है 'मुर्दा बदस्त जिन्दा ख्वाह गाड़ो या कि पूँको।' शास्त्र हमारे कुछ कह नहीं सकते, उन्हें कोई तोड़ो या मरोड़ो, उनकी कलेवरधृद्धि करो अथवा उन्हें तनुक्षीण बनाओ, यह सब लेखकोंके हाथका खेल और उन्हींकी कर्तृत है !! इन बुद्धू अथवा नासमझ लेखकों की बदौलत ग्रंथोंकी कितनी मिट्टी खराब हुई है उसका अनुमान तक भी नहीं हो सकता। ग्रंथोंकी इस खराबीसे कितनी ही गलतफहमियाँ फैल चुकी हैं और यथार्थ वस्तुस्थितिको मालूम करने में बड़ी ही दिक्कतें आ रही हैं । श्रुतसागरसूरिको भी शायद ग्रंथकी कोई ऐसी ही प्रति उपलब्ध हुई है और उन्होंने उस पर * एकादशके ' आदि उन चार पद्योंको स्वामी समंतभद्र द्वारा ही निर्मित समझ लिया है जो ' गृहतो मुनिवनमित्वा ' नामके १४७ वें पद्यके बाद उक्त पहली मूल प्रतिमें पाये जाते हैं। यही वजह है कि उन्होंने 'षट्प्राभृत' की टीकामें* उनका महाकवि समंतभद्रके नामके साथ उल्लेख किया है और उनके आदिमें लिखा है 'उक्तं च समन्तभद्रेण महाकविना' । अन्यथा, वे समन्तभद्रके किसी भी ग्रंथमें नहीं पाये जाते और न अपने साहित्य परसे ही वे इस बातको सूचित करते हैं कि उनके रचयिता स्वामी समंतभद्र जैसे कोई प्रौढ विद्वान्
और महाकवि आचार्य हैं । अवश्य ही वे दूसरे किसी ग्रंथ अथवा ग्रंथोंके पद्य हैं और इसीसे दूसरी मूल प्रतिके टिप्पणमें और दोनों कनड़ी टीकाओंमें उन्हें ' उक्तं च चतुष्टयं ' शब्दोंके साथ उद्धृत किया है। एक पद्य तो उनमेंसे चारित्रसार ग्रंथका ऊपर बतलाया भी जा चुका है।
यहाँ पर यह प्रगट करना शायद कुछ अप्रासंगिक न होगा कि जो लोग अपनेको जिनवाणी माताके भक्त समझते हैं अथवा उसकी भक्तिका दम भरते हैं उनके लिये यह बड़ा ही लज्जाका विषय है जो उनके शास्त्रभंडारोंमें उन्हीं के धर्म-. ग्रंथोंकी ऐसी खराब हालत पाई जाती है। माता उनके सामने लुटती रहे, उस पर अत्याचार होता रहे, उसके अंग विकृत अथवा छिन्न भिन्न किये जाते रहें, कोई उसका सतीत्व भी हरण करता रहे और वे उसकी कुछ भी पर्वाह न करते हुए मौनावलम्बी रहें! क्या इसीका नाम मातृभक्ति है ? इसका नाम कदापि मातृभक्ति नहीं हो सकता। पुत्रोंका ऐसा आचरण उनके लिये महान् कलंक है और
* देखो, सूत्रप्रामृत की गाथा नंबर २१ की टीका।
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