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नहीं। पहले पद्यमें 'उदुम्बरसेवा का उल्लेख, खास तौरसे खटकता है-ये पद्य भी टीका टिप्पणीके लिये ही उद्धृत किये हुए जान पड़ते हैं। पहला पद्य दूसरी प्रतिमें है भी नहीं और दूसरा उसकी टिप्पणीमें ही पाया जाता है । इससे भी . . ये मूल पद्य मालूम नहीं होते। ___ग-अह्नोमुखेवसाने' नामका ७२ नंबरवाला पद्य हेमचंद्राचार्य के 'योगशास्त्र'का पद्य है और उसके तीसरे प्रकाशमें नंबर ६३ पर पाया जाता है। यहाँ मूलग्रंथकी पद्धति और उसके प्रतिपाद्य विषयके साथ उसका कोई सम्बंध नहीं।
घ-वधादसत्यात् ' नामका ७१ वाँ पद्य चामुंडरायके चारित्रसार' ग्रन्थका पद्य है और वहींसे लिया हुआ जान पड़ता है । इसमें जिन पंचाणुव्रतोंका उल्लेख है उनका वह उल्लेख इससे पहले, मूल ग्रन्थके ५२ वें पद्यमें आ चुका है। स्वामी समंतभद्रकी प्रतिपादनशैली इस प्रकार व्यर्थकी पुनरुक्तियोंको लिये हुए नहीं होती, इसके सिवाय ५१ वें पद्यमें अणुव्रतोंकी संख्या पाँच दी है और यहाँ इस पद्यमें 'राज्यभुक्ति ' को भी छठा अणुव्रत बतलाया है, इससे यह पद्य ग्रंथके साथ बिलकुल असम्बद्ध मालूम होता है।
इसी तरह पर 'दर्शनिकव्रतकावपि, ' ' आरंभाद्विनिवृत्तः ' और "आद्यास्तु षट् जघन्याः' नामके तीनों पद्य भी चारित्रसार ग्रंथसे लिये हुए मालूम होते हैं और उसमें यथास्थान पाये जाते हैं। दूसरी मूल प्रतिमें भी इन्हें टिप्पणीके तौर पर ही उद्धृत किया है और टीकामें तो 'उक्तं च ' रूपसे दिया ही है। मूल ग्रंथके संदर्भके साथ ये अनावश्यक प्रतीत होते हैं।
-'मौनं भोजनवेलायां', 'मांसरक्तार्द्रचर्मास्थि', 'स्थूलाः सूक्ष्मास्तथा जीवाः', नामके ७३, ७५ और १०१ नम्बरवाले ये तीनों पद्य पूज्यपादकृत उस उपासकाचारके पद्य हैं, जिसकी जाँचका लेख हमने जैतहितैषी भाग १५ के १२ वें अंकमें प्रकाशित कराया था। उसमें ये पद्य क्रमशः नं० २९, २८ तथा ११ पर दर्ज हैं। यहाँ ग्रंथके साहित्य, संदर्भादिसे इनका कोई मेल नहीं और ये खासे असम्बद्ध मालूम होते हैं।
ऐसी ही हालत दूसरे पद्योंकी है और वे कदापि मूल ग्रंथके अंग नहीं हो सकते । उन्हें भी उक्त पद्योंकी तरह, किसी समय किसी व्यक्तिने, अपनी याद. दाश्त आदिके लिये, टीका टिप्पणी के तौर पर उद्धृत किया है और बादको, उन टीका टिप्पणवाली प्रतियों परसे मूल ग्रंथकी नकल उतारते सम्य, लेख.
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