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तरह 'लोकमूढता'का भी वर्णन एक ही पद्यमें किया है । १३ वीं शताब्दीके विद्वान् पं० आशाधरजीने भी' अपने 'अनगारधर्मामृत'की टीकामें स्वामिसमंतभद्रके नामसे-'स्वामिसूक्कानि' पदके साथ--मूढत्रयके द्योतक उन्हीं तीन पद्योंको उद्धृत किया है जो इस सटीक ग्रंथमें पाये जाते हैं। इसके सिवाय उक्त दोनों पद्य खालिस 'लोकमूढता'के द्योतक हैं भी नहीं। और न उन्हें वैसा सूचित किया गया है। यशस्तिलकमें उनके मध्यवर्ती यह पद्य और दिया है
नदीनदसमुद्रेषु मजनं धर्मचेतसां ।
तरुस्तूपानभक्तानां वन्दनं भृगुसंश्रयः। और इस तरहपर तीनों पद्योंमें मूढताओंके कथनका कुछ समुच्चय किया गया है, पृथक् २ स्वरूप किसीका नहीं दिया गया-जैसा कि उनके बादके निम्न पद्यसे प्रकट है
समयान्तरपाषण्डवदलोकसमाश्रयम् ।
एवमादि विमूढानां ज्ञेयं मूढमनेकधा । इस सब कथनसे यह बिलकुल. स्पष्ट हो जाता है कि उक्त दोनों पद्य मूलग्रंयके नहीं बल्कि यशस्तिलकके हैं। . ख-'मूढत्रयं' नामका १६५ नंबरवाला पद्य भी यशस्तिलकके छठे आश्वास ( कल्प नं० २१) का पद्य है । वह साफ तौरसे 'सम्यग्दर्शनशुद्धः' पदकी टीका टिप्पणीके लिये उद्धृत किया हुआ ही जान पड़ता है-दूसरी प्रतिकी टिप्पणीमें वह दिया भी है । मूलग्रंथके संदर्भके साथ उसका कोई मेल नहीं-वह वहाँ निरा अनावश्यक जान पड़ता है । स्वामिसमंतभद्रने सूत्ररूपसे प्रत्येक प्रतिमाका स्वरूप एक एक पद्यमें ही दिया है।
इसी तरहपर, 'मांसासिषु' और 'श्रद्धाशक्ति' नामके पद्य नं. ८१,१३७ भी यशस्तिलकके ही जान पड़ते हैं । वे क्रमशः उसके ७ वें, ८ वें आश्वासमें जरासे पाठभेदके * साथ पाये जाते हैं । मूलग्रंथके संदर्भके साथ इनका भी मेल __ * पहले पद्यमें 'धर्मभावो न जीवेषु' की जगह 'आनृशंस्यं न मत्र्येषु' यह पाठ दिया है। और दूसरे पद्यमें 'शक्तिः' की जगह 'तुष्टिः,' 'दयाक्षान्ति'की जगह 'क्षमाशक्तिः' और 'यस्मैते' की जगह ' यत्रैते ' ये पाठ दिये हैं जो बहुत साधारण हैं।
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