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इसके सिवाय इतनी विशेषता और भी है कि पहली मुल प्रतिमें सिर्फ पाँच पद्योंके साथ ही 'उक्तं च, ''उक्तं च त्रयं ' शब्दोंका संयोग था। इस प्रतिमें उन पद्योंके अतिरिक्त दूसरे और भी २१ पद्योंके साथ वैसे शब्दोंका संयोग पाया जाता है-अर्थात् , नं० १०१ से १०५ तकके पांच पद्योंको 'उक्तं च पंचकं,' १३५* से १३७ नंबरवाले तीन पद्योंको 'उक्तं च,' १६५ से १६७ नंबरवाले तीन पद्योंको ' उक्तं च त्रयं ' १७२, १७४, १७६ नंबरवाले पद्योंको जुदा जुदा 'उक्तं च,' १७९ से १८१ नंबरवाले तीन पद्योंको 'उक्तं च त्रयं' और १८४ से १८७ नंबरवाले चार पद्योंको ' उक्तं च चतुष्टयं ' शब्दोंके साथ उद्धृत किया है। साथ ही, इस टीका तथा दूसरी टीकामें भी 'भैषज्यदानतो' नामके पथके साथ 'श्रीषेण' और 'देवाधिदेव' नामके पद्योंको भी 'उक्तं च त्रयं' रूपसे एक साथ उद्धृत किया है । भाऊ बाबाजी लड़े द्वारा प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावनादिसे ऐसा मालूम होता है कि कनड़ी लिपिकी २०० श्लोकोंवाली प्रतिमें 'भैषज्यदानतो' नामक पद्यके बाद यह पद्य भी दिया हुआ है
शास्त्रदानफलेनारमा कलासु सकलास्वपि ।
परिज्ञाता भवेत्पश्चास्केवलज्ञानभाजनं ॥ संभव है कि श्रीषण' नामक पद्यको साथ लेकर ये तीनों पद्य ही 'उक्तं च त्रयं' शब्दोंके वाच्य हों, और 'शास्त्रदान' नामका यह पद्य कनड़ी टीकाकी इन प्रतियोंमें छूट गया हो।
(४) भवनकी चौथी ६२९ नंबरवाली प्रति भी कनडीटीकासहित है। इसकी हालत प्रायः तीसरी प्रति जैसी है, विशेषता सिर्फ इतनी ही यहाँ उल्लेख योग्य है कि इसमें १७४ नंबरवाले पद्यके साथ ' उक्तं च' शब्द नहीं दिये और १७२ नंबरवाले पद्यके साथ 'उक्तं च' की जगह 'उक्तं च त्रयं' शब्दोंका प्रयोग किया है परंतु उनके बाद श्लोक वही एक दिया है । इसके सिवाय इस टीकामें ६० नंबरवाले पद्यके 'उक्तं च ' ७१ से ७६ नंबरवाले छह पद्योंको ‘उक्तं च षटुं'
और १६२, १६३ नंबरवाले दो पद्योंको 'उक्तं च द्वयं ' लिखा है। और इन ९ पद्योंका यह उल्लेख तीसरी प्रतिसे इस प्रतिमें अधिक है।
*१३५ और १३६ नंबरवाले पद्य रत्नकरंडकी इस संस्कृतटीकामें भी 'तदुक्तं' .. आदिरूपसे उद्धृत किये गये हैं। ..
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