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भारत।
उन्हें धिक्कारका पात्र बनाता है । उन्हें माताकी सच्ची खबरदारी और उसकी . सच्ची रक्षाका प्रबंध करना चाहिये-ऐसा विशाल आयोजन करना चाहिये जिससे जिनवाणीका प्रत्येक अंग-प्रत्येक धर्मग्रंथ अपनी अविकल स्थितिमें अपने उस असली स्वरूपमें जिसमें किसी आचार्य महोदयने उसे जन्म दिया हैउपलब्ध हो सके । ऐसा होने पर ही वे अपना मुख उज्ज्वल कर सकेंगे और अपनेको जिनवाणी माताका भक्त कहला सकेंगे । अस्तु ।
जाँचका सारांश । इस लम्बी चौड़ी जाँचका सारांश सिर्फ इतना ही है कि
१-ग्रंथकी दो प्रकारकी प्रतियाँ पाई जाती हैं-एक तो वे जो इस सटीक प्रतिकी तरह डेढ़सौ श्लोकसंख्याको लिये हुए हैं और दूसरी वे जिन्हें ऊपर "अधिक पद्योंवाली प्रतियाँ ' सूचित किया है। तीसरी प्रकारकी ऐसी कोई उल्लेखयोग्य प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई जिसमें पद्योंकी संख्या डेढसौसे कम हो । परंतु ऐसी प्रतियोंके उपलब्ध होनेकी संभावना बहुत कुछ है । उनकी तलाशका अभीतक कोई यथेष्ट प्रयत्न भी नहीं हुआ जिसके होनेकी जरूरत है।
२-ग्रंथकी डेढ़सौ श्लोकोंवाली इस प्रतिके जिन पद्योंको क्षेपक बतलाया जाता है अथवा जिन पर क्षेपक होनेका संदेह किया जाता है उनमेंसे 'चतुराहारविसर्जन' और दृष्टान्तोंवाले पद्योंको छोड़कर शेष पद्योंका क्षेपक होना युक्तियुक्त मालूम नहीं होता और इसलिये उनके विषयका संदेह प्रायः निर्मूल जान पड़ता है।
३-ग्रंथमें 'चतुराहारविसर्जन' नामका पद्य और दृष्टांतोंवाले छहों पद्य, ऐसे सात पद्य बहुत ही संदिग्ध स्थितिमें पाये जाते हैं । उन्हें ग्रंथका अंग मानने और स्वामी समंतभद्रके पद्य स्वीकारनेमें कोई युक्तियुक्त कारण मालूम नहीं देता। वे खुशीसे उस कसौटी ( कारणकलाप ) के दूसरे तीसरे और पाँचवें भागों में आ जाते हैं जो क्षेपकोंकी जाँचके लिये इस प्रकरणके शुरूमें दी गई है। परंतु इन पद्योंके क्षेपक होनेकी हालतमें यह जरूर मानना पड़ेगा कि उन्हें ग्रंथमें प्रक्षिप्त हुए बहुत समय बीत चुका है-वे इस टीकासे पहले ही ग्रंथमें प्रविष्ट हो चुके हैं और इसलिये ग्रन्थकी ऐसी प्राचीन तथा असंदिग्ध प्रतियोंको खोज निकालनेकी खास जरूरत है जो इस टीकासे पहलेकी-विक्रमी १३ वीं शताब्दीसे पहलेकी-लिखी हुई हों अथवा जो खास तौर पर प्रकृता
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