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जो उसने सल्लेखना और प्रतिमाओंके दोनों अधिकारों को एक ही परिच्छेदमें शामिल किया है। परंतु कुछ भी हो, यह तीसरी विशेषता भी आपत्तिके योग्य जरूर है । अस्तु । __ यह टीका 'प्रभाचंद्र' आचार्यकी बनाई हुई है। परंतु टीकामें न तो प्रभाचंद्रकी कोई प्रशस्ति है, न टीकाके बननेका समय दिया है और न टीकाकारने कहीं पर अपने गुरुका ही नामोल्लेख किया है। एसी हालतमें यह टीका कौनसे प्रभाचंद्राचार्यकी बनाई हुई है और कब बनी है, इस प्रश्नका उत्पन्न होना स्वाभाविक है; और वह अवश्य ही यहाँ पर विचार किये जानेके योग्य है; क्योंकि जैन समाजमें प्रभाचंद्र ' नामके बीसियों * आचार्य हो गये हैं, जिनमेंसे कुछका-जिनका हम अभी तक अनुसंधान कर सके हैं-सामान्य परिचय अथवा पता मात्र इस प्रकार है
(१) वे प्रभाचंद्र जिनका उल्लेख श्रवणबेल्गोल के प्रथम शि० लेखमें पाया जाता है, और जिनकी बाबत यह कहा जाता है कि वे भद्रबाहु श्रुतकेवलीके दीक्षित शिष्य सम्राट चन्द्रगुप्त' थे।
( २ ) वे प्रभाचंद्र जिनका श्रीपूज्यपादकृत जैनेन्द्र . व्याकरणके 'रात्रेः कृति प्रभाचंद्रस्य ' इस सूत्रमें उल्लेख मिलता है।
(३) वे प्रभाचंद्र जिनका उल्लेख, जैनसिद्धान्तभास्करकी ४ थी किरणमें प्रकाशित 'शुभचंद्राचार्यकी गुर्वावली ' और 'नंदिसंघकी पद्यावलीके आचार्योंकी नामावलीमें, 'लोकचंद'के बाद और ' नेमिचंद ' से पहले पाया जाता है। साथ ही पट्टावलीमें जिनके पट्ट पर प्रतिष्ठित होनेका समय भी वि. संवत् ४५३ दिया है । । यदि यह समय ठीक हो तो दूसरे नंबर वाले प्रभाचंद्र और ये दोनों एक व्यक्ति भी हो सकते हैं ।
-- * सन् १९२१-२२ में इस टीकाके कर्तृत्व-विषय पर कुछ विद्वानोंने चर्चा चलाई थी, और 'प्रभाचंद्र कितने हैं ' इत्यादि शीर्षकोंको लिये हुए कितने ही लेख उस समय जैनमित्र, जैनसिद्धान्त, जैनबोधक और जैनहितेच्छु पत्रोंमें प्रकाशित हुए थे। उन लेखोंमें प्रभाचंद्र नामके विद्वानोंकी जो संख्या प्रकाशित हुई थी वह शायद पाँचसे अधिक नहीं थी।
जैनहितैषी भाग छठा, अंक ७-८ में प्रकाशित “गुर्वावली' और "पट्टावली में भी यह सब उल्लेख मिलता है।
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