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दशके' आदि चार पद्योंके साथ 'उक्तं च चतुष्टयं' ये शब्द भी लगे हुए हैं। ४१,१७४ और १७६ नंबरवाले तीन पद्योंको ग्रंथका अंग बनाकर पीछेसे कोष्टकके भीतर कर दिया है और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है. के ये पद्य मूलग्रंथके पद्य नहीं हैं-भूलसे मध्यमें लिखे गये हैं उन्हें टिप्पगीके तौरपर हाशियेपर लिखना चाहिये था। इस तरहपर अठारह पद्योंको ग्रंथका अंग नहीं बनाया गया है । बाकीके सतरह पद्योंमेंसे, जिन्हें ग्रंथका अंग बनाया गया है, ७१ से ७६,१०१ से १०५ और १७२ नंबरवाले बारह पद्योंको 'उक्तं च' 'उक्तं च पंचकं' इत्यादि रूपसे दिया है और उसके द्वारा प्रथम मूलप्रतिके आशयसे भिन्न यह सूचित किया गया है कि ये स्वामी समंतभद्रसे भी पहलेके-दूसरे आचार्योंके-पद्य हैं और उन्हें समन्तभद्रने अपने मूलग्रंथमें उद्. . वृत किया है । हाँ, पहली प्रतिमें 'भैषज्यदानतो' नामके जिस पद्य नं० १४२ को 'उक्तं च त्रयं' शब्दोंके साथ दिया है वह पद्य यहाँ उक्त शब्दोंके संसर्गसे रहित पाया जाता है और इस लिये पहली प्रतिमें उक्त शब्दोंके द्वारा जो यह सूचित होता था कि अगले 'श्रीषेण' तथा 'देवाधिदेव' नामके वे पद्य भी 'उक्तं च ' समझने चाहिये जो डेढ़सौ श्लोकवाली प्रतियोंमें पाये जाते हैं वह बात इस प्रतिसे निकल जाती है । एक विशेषता और भी इस प्रतिमें देखी जाती है और वह यह है कि 'अतिवाहना' नामके ६२ वें पद्यके बाद जिन छह श्लोकोंका उल्लेख पहली प्रतिमें पाया जाता है उनका वह उल्लेख इस प्रतिमें उक्त स्थानपर नहीं है । वहाँ पर उन पद्योंमेंसे सिर्फ 'अहोमुखे' नामके ७२ वें पद्यका ही उल्लेख है
और उसे भी देकर फिर कोष्टकमें कर दिया है। उन छहों पद्योंको इस प्रतिमें 'मद्यमांस' नामके ६६ वें पद्यके बाद 'उक्तं च ' रूपसे दिया है और उनके बाद 'पंचाणुव्रत' नामके ६३ वें मूल पद्यको फिरसे उद्धृत किया है।
(३) भवनकी तीसरी ६४१ नम्बरवाली प्रति कनडीटीकासहित है। इसमें पहली मूल प्रतिवाले वे सब चालीस पद्य, जो ऊपर उद्धृत किये गये हैं, अपने अपने पूर्वसूचित स्थानपर और उसी क्रमको लिये हुए, टीकाके अंगरूपसे पाये जाते हैं । सिर्फ द्यूतं च मांस' नामके पद्य नं० १६६ की जगह टीकामें उसी आशयका यह पद्य दिया हुआ है
द्यूतं मांसं सुरा वैश्या पापार्द्ध परदारता । स्तोयेन सह सप्तेति व्यसनानि विदूरयेत् ॥
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