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किसी प्राचीन पुराणमें जयको, परदारनिवृत्ति व्रतकी जगह अथवा उसके अतिरिक्त, परिग्रहपरिमाणव्रतका व्रती लिखा होगा । परंतु पहली अवस्थामें इतना जरूर मानना होगा कि वह व्यक्ति टीकाकारके समयमें भी इतना अप्रसिद्ध था. कि टीकाकारको उसका बोध नहीं हो सका और इस लिये उसने सुलोचनाके पति 'जय' को ही जैसे तैसे उदाहृत किया है । दूसरी हालत में, उदाहृत कथा परसे, टीकाकारका उस दूसरे पुराणग्रंथसे परिचित होना संदिग्ध जरूर मालूम होता है । चौथी आपत्तिके सम्बंधमें यह कल्पना की जा सकती है कि 'धनश्री' नामका पद्य कुछ अशुद्ध हो गया है । उसका 'यथा क्रम' पाठ जरा खटकता भी है। यदि ऐसे पद्योंमें इस आशयके किसी पाठके देनेकी जरूरत होती तो वह 'मातंगो' तथा ' श्रीषेण' नामके पद्योंमें भी जरूर दिया जाता; क्योंकि उनमें भी पूर्वकथित विषयोंके क्रमानुसार दृष्टांतोंका उल्लेख किया गया है। परंतु ऐसा नहीं है; इस लिये यह पाठ यहाँपर अनावश्यक मालूम होता है । इस पाठकी जगह यदि उसीकी जोड़का दूसरा 'ऽन्यथासमं' पाठ बना दिया जाय तो झगड़ा बहुत कुछ मिट जाता है और तब इस पद्यका यह स्पष्ट आशय हो जाता है कि, पहले पद्यमें मातंगादिकके जो दृष्टांत दिये गये हैं उनके साथ ही ( समं ) इन 'धनश्री' आदिके दृष्टांतोंको भी विपरीत रूपसे ( अन्यथा ) उदाहृत करना चाहिये-अर्थात्, वे अहिंसादिव्रतोंके दृष्टांत हैं तो इन्हें हिंसादिक पापोंके दृष्टान्त समझना चाहिये और वहाँ पूजातिशयको दिखाना है तो यहाँ तिरस्कार और दुःखके अतिशयको दिखलाना होगा । इस प्रकारके पाठभेदका हो जाना कोई कठिन बात भी नहीं है। भंडारोंमें ग्रंथोंकी हालतको देखते हुए, वह बहुत कुछ साधारण जान पड़ती है । परंतु तब इस पाठभेदके सम्बंधमें यह मानना होगा कि वह टोकासे पहले हो चुका है
और टीकाकारको दूसरे शुद्ध पाठकी उपलब्धि नहीं हुई । यही वजह है कि उसने 'यथाक्रम' पाठ ही रक्खा है और पद्यके विषयको स्पष्ट करनेके लिये उसे टीकामें ' हिंसादिविरत्यभावे ' पद की वैसे ही ऊपरसे कल्पना करनी पड़ी है।
शेष आपत्तियोंके सम्बंधमें, बहुत कुछ विचार करने पर भी, हम अभीतक ऐसा कोई समाधानकारक उत्तर निश्चित नहीं कर सके हैं जिससे इन पद्योंको। __ + यद्यपि छठे पद्यका रंगढंग दूसरे पद्योंसे कुछ भिन्न है और उसे ग्रंथका अंग माननेको जी भी कुछ चाहता है परंतु पहली आपत्ति उसमें खास तौरसे बाधा डालती है और यह स्वीकार करने नहीं देती कि वह भी ग्रंथका कोई अंग है।
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