Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj
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रत्नकरण्डश्रावकाचार यो तो देखा जाता है कि सुख शल्दका प्रयोग अनेक अभीष्ट विषयों में होता है किंतु प्राचार्यों ने इसका प्रयोग मुख्यतया चार अर्थों में बताया है. विषय, वेदनाका अभाव, विपाक
और मोक्ष । वैभव ऐश्वर्य आदि अथवा इन्द्रियों के विपय यदि मनोहर हों तो सुख शब्दसे कहे जाते हैं। पुण्य कर्मोंके उदय को भी सुख शब्दके द्वारा कहा जाता है। इस तरह ये तीन अर्थ हैं जो कि कर्म के उदयादिकको किसी न किसी प्रकार अपेक्षा रखते हैं। चौथा अर्थ मोक्षसे है जोति कर्मकी प्रभाल की सपेता सता है। फलतः यह चारों अर्थ दो भागोंमें विभक्त हो जाते हैं...एक सांसारिक और मरा नैःश्रेयस । ये दोनों ही सुख नश्चतः परस्पर में अत्यंत विरुद्ध जातिके हैं। दोनोंका स्वरूप भिन्न २ है, दोनों के कारण भी भिन्न २ ही हैं। सामान्यतया दोनोही सुख शब्द से कहे जाते हैं। परन्तु वास्तव में एक हेय और दूसरा उपादेय है। जिस धर्म का यहां व्याख्यान किया जायगा उसका वास्तविक फल उपादेय अथवा नःश्रेयस सुख है; इस बातको बताने के लिए ही मुखका उत्तम विशेषण दिया गया है।
सांसारिक सुखकी अपेक्षा नःयस सुखकी उपादेयता एवं उत्तपताका परिझान उनके स्वरूप और कारणों को जान लेनेपर हो सकता है अतएव स्वयं ग्रंथकारने अागे चलकर अपने इसी ग्रन्थ में दोनोही सुखों के स्वरूप एवं कारण का यथावसर निदश कर दिया है।
प्रश्न हो सकता है कि ऐसी अवस्था में प्रकृत धर्म नःश्रेयस सुखका ही कारण हो सकता है न कि सांसारिक सुखोका | फिर सांसारिक सुखोका कारण क्या है ? इस प्रश्नका उपर धर्मकी विभिन्न दशाओंका स्वरूप समझ लेनेपर सहज ही हो सकता है । यहाँ आगेकी कारिकामें धर्मके स्वरूपका सामान्यतया उन्लेख किया जायगा, परन्तु उसके अंतरंग बहिरंग के कारण भेदोंके साहचर्यवश अनेक भेद हो जाते हैं । कारण भेदके अनुसार कार्ग भदका होना स्वाभाविक है । जिस धर्मका यहो व्याख्यान किया जायगा उसके द्रव्य और भाव इस तरह से तथा सराग और वीतराग इसतरह से दो भेद है ।
विवक्षित धर्मके पातक बाधक या प्रतिपक्षी मुख्यतया मोह और योम है । मोहके उपशम वपक्षपोषशमके होने पर जो श्रात्मामें विशुद्धि प्रकट होती है वही वास्तविक एवं भाष रूप अन्तरंग धर्म है। उसके रहते हुए या कदाचित न रहते हुए भी जो वाम रूपमें असंयम रूप
-विषये वेदनाभावे विपाके मोक्ष एवच । लोके चतुविहार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । अमृतच द्र आचार्य तवार्थसार । २-राजाधिराज रूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रादिरिपूर्णविभूतिविभवः, ओशाफलमैश्वर्यम् । प्रजा टीका ३-सुखों घायुः सुम्यो वहिः....." तत्त्वार्थसार । १-१६१
४--देखो रत्लफरगह-कर्मपरवशेसान्ते दुःखैरन्तरितोदये। पापीजे सुखे नास्था श्रद्धामाकांक्षमा स्मृता॥ तथा-शिवमजरमरु जमक्षयमध्यावा विशोकभयभंकम् । काष्ठागत सुखविद्या विभा विमल भजन्ति दर्स नपूतः ॥ ४० ॥