Book Title: Ratnakarand Shravakachar ki Bhasha Tika Ratnatray Chandrika Part 1
Author(s): Khubchand Shastri
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 363
________________ रत्नकरवश्रावकाचार सहयोग निमिपसे नियमसे सज्जातित्व को प्राप्त करलिया करता है। इसी प्रकार संसारके समस्त ऐश्वर्य वैभव आदि मेंसे अहंभाव अथवा आकांकी भावना तथा परावलम्बनको यादव छूट जाने और उसके विरुद्ध स्वाधीन वास्तविक सदर्थ सुखशान्तिमय आत्मार्थका बोध होजाने और भास्मायत्तप्रकृतिसे प्रेमपूर्ण परिचयका सरस स्वभाव बन जानके कारण ऐहिक लभ धनका पात्रदान देवपूजा जैसे सत्कार्यों में ही मुख्यतया सदुपयोग करने और उसीसे उसकी सफलता माननेकी श्रद्धा रुषि चर्या के परिणामों के फलस्वरूप आनुवंशिक सद्गृही होनके साथ साथ यह महार्थ ही हुआ करता है । इसी प्रकार यह संसार और उसके कारणों को आत्मघातका-शत्रुका सर्वोत्कृष्ट कारावास समझकर और शरीर तथा भोगोंको कुलटा स्त्रीके हाव भाव विलास विभ्रमके स्थानापम मानकर जो स्वरूपरतिमें ही प्रीति करनेको श्रेयस्कर समझ पुनः पुनः उधर ही नित. सृषिकी अनुवृत्ति बने रहने के कारण जो क्षोभक कारणों में सातिशय मन्दता आजाती है उसके फलस्वरूप साधारणसे निमित्तको पाकर अथवा विना ही निमित्तके उपदेश एवं गुरुका प्रसङ्ग पाते ही अवश्य ही पारिवाज्यको प्राप्त करलिया करता है। इस तरह विचार करने पर सहजही मालुम हो सकता है कि जो व्यक्ति सम्यग्दर्शनसे पवित्र है वह स्वभावसे ही अपने लक्ष्यभूत निर्वाणके बाझ साधनरूप उन आभ्युदयिक पदोंको सहभावी विशिष्ठ परिणामों के निमिचक बल पर नियमसे ही प्राप्त कर लिया करता है जिनको कि मिथ्यात्वकलङ्कित व्यक्ति कभी भीर प्राप्त नहीं कर सकता । क्योंकि प्रथम तो उसतरहके परिणामोंकी त्रिशुद्धिसे वंचित रहनकै कारण उसके लिये नियम ही नहीं है कि वह उत्तम फुलमें ही जन्म ग्रहण करे मोक्षकी साधनभूत सज्जातीयताका ही भागी हो । कदाचित महाकुलमें भी उत्पन्न होगाय तो भी उसके सहचारी भारो गुणों या धर्मामें वह सातिशयता तथा सम्यक्त्वक निमिससे प्रादुर्भूत हुई अपूर्व महान् संस्कारोंकी संताते नहीं पाई जाती जो कि सम्परम्पक साधहा उत्पन्न होनबाली-भानेवाला एवं सतत निर्माणमार्गको सिद्ध करनेवालिये प्रतिदिनके कार्यक्रमका समुख रखनेवाले सहायक सवक समान प्रेरित करनेवाली है। सम्यग्दृष्टिको मोधमार्गमें आगे बढनक लिये प्रथम तीनों ही परमस्थानोंके समानरूपसे आवश्यक होने पर भी उनमें सज्जावित्व प्रथम मुख्य और प्रधान है । क्योंकि जो जात्याय है वही सद्गृही हो सकता है और उनमंस ही कोई कोई विरल व्यक्ति पारिवाज्यको प्राप्त कर सकता है। १-'कभी भी' कहनका आशय यह है कि जिस तरह यह वैकालिक-सदाचन नियम है कि जो सम्यक्त्व हत है यह कभी भी दुष्कुलमें उत्पन्न नहीं होता, सदा महान् फूलों में ही जन्म ग्रहण करता है; वैसा गिप्याराष्टिक लिये कभी भी कोई भी नियम नहीं है।

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